हम यह देह नहीं, सर्वव्यापी परमात्मा के साथ एक हैं। लेकिन हमारा तमोगुण हमें परमात्मा से दूर करता है। हमारे चारो ओर जो तमोगुण रूपी आसुरी तत्व भरा हुआ है, वह हमें परमात्मा की अनुभूति नहीं होने देता। तमोगुण से मुक्त होने के लिए हमें नित्य नियमित ध्यान साधना करनी ही होगी। ध्यान-साधना एक यज्ञ है जिसमें हम अपने स्वयं की यानि अपने अहं की आहुति परमात्मा को देते हैं।
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एक अंधा दूसरे अंधे को मार्ग नहीं दिखा सकता। बड़े बड़े उपदेश तो हम लोग निःस्पृहता के देते हैं, लेकिन हमारी दृष्टि धनाढ्य/मालदार आसामियों की खोज में ही रहती है। पैसा झटकने में बिलकुल भी देर नहीं लगाते। हम लोग कहते तो यह हैं कि साधु का वातानुकूलित भवनों से क्या काम ? पर स्वयं बिना वातानुकूलित भवनों के रह ही नहीं सकते। जहाँ झूठ-कपट हो, व कथनी-करनी में अंतर हो, उस स्थान और उस वातावरण का विष की तरह तुरंत त्याग कर देना चाहिये। पात्रता होने पर ही सदगुरु मिलते हैं।
अन्यथा --
"सद्गुरु तो मिलते नहीं, मिलते गुरु-घंटाल।
पाठ पढ़ायें त्याग का, स्वयं उड़ायें माल॥"
"गुरू लोभी चेला लालची, दोनों खेले दाव।
दोनों डूबे बावरे, चढ़ पत्थर की नाव॥"
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परमात्मा -- निकटतम से अधिक निकट, और प्रियतम से भी अधिक प्रिय हैं। उनके और हमारे मध्य में कोई भेद है ही नहीं। वे इसी समय यहीं पर हमारे अंतर में, हमारे चैतन्य में हैं। उन्हें जानने का एक ही तरीका है, और वह है -- परमप्रेम/अनुराग द्वारा पूर्ण समर्पण। अन्य कोई उपाय नहीं है।
"मिले न रघुपति बिन अनुरागा, किये जोग जप ताप विरागा "
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स्वयं से पृथक कोई अस्तित्व नहीं है। परमात्मा हमारे से पृथक नहीं हैं।
"सोइ जानइ जेहि देहु जनाई | जानत तुम्हहि तुम्हइ होइ जाई ||"
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महाभारत में यक्षप्रश्नों के उत्तर में महाराज युधिष्ठिर एक स्थान पर कहते हैं --
"श्रुतिर्विभिन्ना स्मृतयो विभिन्नाः नैको मुनिर्यस्य वचः प्रमाणम्।
धर्मस्य तत्वं निहितं गुहायां महाजनो येन गतः सः पन्थाः॥"
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इस से अधिक अच्छा कोई उत्तर नहीं हो सकता। बाकी सब की अपनी अपनी सोच और निजी अनुभूतियाँ हैं।
ॐ तत्सत् ! ॐ स्वस्ति ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर .
२८ अप्रेल २०१९