अंतर्राष्ट्रीय पुरुष दिवस :--- (१९ नवंबर)
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आज अंतर्राष्ट्रीय पुरुष दिवस (International Men's Day) था। महिला दिवस पर सैंकड़ों लेख लिखे जाते हैं, लेकिन पुरुष दिवस पर आज एक भी लेख नहीं देखा। संसार में जीवित रहने के लिए महिला और पुरुष दोनों का ही योगदान होता है। पुरुषों की भलाई, स्वास्थ्य, मानसिक विकास, और उनके सकारात्मक गुणों का भी बहुत अधिक महत्व है। पुरुष ही राष्ट्र, समाज और मातृशक्ति की रक्षा कर सकते हैं। पुरुषों को भी मधुमेह, हृदय रोग, प्रोस्टेट ग्रंथि के विकार, और अनेक तरह के तनाव आदि हो सकते हैं। उन्हें भी अच्छा व्यवहार, प्रेम और सद्भावना चाहिए; सिर्फ दोषारोपण ही नहीं। अपनी भावनाओं को व्यक्त करने का मुझे भी अधिकार है, इसीलिए यह लेख लिख रहा हूँ।
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इस संसार में सबसे अधिक कठिन कार्य है पुरुष होना। मैं अपना स्वयं का ही उदाहरण देता हूँ। मैंने अति अति विपरीत परिस्थितियों में भी अपने परिवार और समाज की रक्षा और उत्थान के लिए पता नहीं कितने कष्ट उठाये -- यह मैं ही जानता हूँ। मेरा सर्वप्रथम उद्देश्य था -- भौतिक दरिद्रता और गरीबी से मुक्ति। दरिद्रता सबसे बड़ा पाप है। अति कठिन संघर्ष कर के भौतिक दरिद्रता से मुक्ति पाई तो पाया कि उससे भी अधिक कष्टदायक आध्यात्मिक दरिद्रता है। अब तो आध्यात्मिक दरिद्रता से भी मुक्त हूँ। सारी पीड़ाएँ, सारे कर्म और उनके फल भगवान को समर्पित कर दिये, इसी से जीवन में सुख-शांति है, व इसीलिए जीवित हूँ, अन्यथा अब तक यह जीवन लीला कभी की समाप्त हो गई होती।
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आध्यात्मिक दृष्टि से एक ही पुरुष हैं, वे हैं भगवान विष्णु और उनके अवतार। अन्य सब प्रकृति है। पुरुष का अर्थ है पुरी में शयन करने वाला। हमारी इस देह रूपी पूरी में वे ही शयन कर रहे हैं। गीता में भगवान कहते हैं --
"अधिभूतं क्षरो भावः पुरुषश्चाधिदैवतम्।
अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर॥८:४॥"
अर्थात् - हे देहधारियोंमें श्रेष्ठ अर्जुन ! क्षरभाव अर्थात् नाशवान् पदार्थ को अधिभूत कहते हैं, पुरुष अर्थात् हिरण्यगर्भ ब्रह्माजी अधिदैव हैं और इस देह में अन्तर्यामी रूप से मैं ही अधियज्ञ हूँ।
Matter consists of the forms that perish; Divinity is the Supreme Self; and He who inspires the spirit of sacrifice in man, O noblest of thy race, is I Myself, Who now stand in human form before thee.
"अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्।
यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः॥८:५॥"
अर्थात् - जो मनुष्य अन्तकालमें भी मेरा स्मरण करते हुए शरीर छोड़कर जाता है, वह मेरे स्वरुप को ही प्राप्त होता है, इसमें सन्देह नहीं है।
And whosoever, leaving the body, goes forth remembering Me alone, at the time of death, he attains My Being: there is no doubt about this.
"अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना।
परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन्॥८:८॥"
अर्थात् - हे पार्थ ! अभ्यासयोग से युक्त अन्यत्र न जाने वाले चित्त से निरन्तर चिन्तन करता हुआ (साधक) परम दिव्य पुरुष को प्राप्त होता है।
With the mind not moving towards any other thing, made steadfast by the method of habitual meditation, and constantly meditating, one goes to the Supreme Person, the Resplendent, O Arjuna.
"प्रयाणकाले मनसाऽचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव।
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्॥८:१०॥"
अर्थात् - वह भक्तियुक्त मनुष्य अन्तसमयमें अचल मनसे और योगबलके द्वारा भृकुटीके मध्यमें प्राणोंको अच्छी तरहसे प्रविष्ट करके (शरीर छोड़नेपर) उस परम दिव्य पुरुषको ही प्राप्त होता है।
He who leaves the body with mind unmoved and filled with devotion, by the power of his meditation gathering between his eyebrows his whole vital energy, attains the Supreme.
"त्वमादिदेवः पुरुषः पुराण स्त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्।
वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम त्वया ततं विश्वमनन्तरूप॥११:३८॥"
अर्थात् - आप ही आदिदेव और पुराणपुरुष हैं तथा आप ही इस संसारके परम आश्रय हैं। आप ही सबको जाननेवाले, जाननेयोग्य और परमधाम हैं। हे अनन्तरूप ! आपसे ही सम्पूर्ण संसार व्याप्त है।
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वेदों में १८ श्लोकों का पुरुष सूक्त है। हम उन्हीं परम पुरुष को प्राप्त हों। वे ही एकमात्र पुरुष हैं --
सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात्। स भूमिं विश्वतोवृत्वात्यतिष्ठद्दशांगुलम्॥
पुरुष एवेदम् सर्वं यद्भूतम् यच्च भव्यम्। उतामृतत्वस्येशानो यदह्नेनाऽतिरोहति॥
एतावानस्य महिमातो ज्यायांश्च पुरुषः। पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि॥
त्रिपादूर्ध्वं उदैत् पुरुषः पादोस्येहा पुनः। ततो विश्वं व्यक्रामच्छाशनान शने अभि॥
तस्माद्विराडजायत विराजो अधिपुरुषः। सहातो अत्यरिच्यत पश्चात् भूमिमतो पुरः॥
यत्पुरुषेन हविषा देवा यज्ञमतन्वत। वसन्तो अस्यासीद्दाज्यम् ग्रीष्म इद्ध्म शरद्धविः॥
सप्तास्यासन्परिधयस्त्रि सप्त समिधः कृताः। देवा यद्यज्ञं तन्वानाः अबध्नन्पुरुषं पशुं॥
तं यज्ञं बर्हिषि प्रौक्षन्पुरुषं जातमग्रतः। तेन देवा अयजन्त साध्या ऋषयश्च ये॥
तस्माद्यज्ञात्सर्वहुतः संभृतं पृषदाज्यं। पशून्तांश्चक्रे वायव्यानारण्यान्ग्राम्याश्च ये॥
तस्माद्यज्ञात्सर्वहुतः ऋचः सामानि जज्ञिरे। छंदांसि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायत॥
तस्मादश्वा अजायन्त ये के चोभयादतः। गावो ह जज्ञिरे तस्मात्तस्माज्जाता अजावयः॥
यत्पुरुषं व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन्। मुखं किमस्य कौ बाहू का उरू पादा उच्येते॥
ब्राह्मणोऽस्य मुखामासीद्बाहू राजन्य: कृत:। ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रोऽजायत॥
चंद्रमा मनसो जातश्चक्षोः सूर्यो अजायत। मुखादिंद्रश्चाग्निश्च प्राणाद्वायुरजायत॥
नाभ्या आसीदंतरिक्षं शीर्ष्णो द्यौः समवर्तत। पद्भ्यां भूमिर्दिशः श्रोत्रात्तथा लोकाँ अकल्पयन्॥
वेदाहमेतम् पुरुषम् महान्तम् आदित्यवर्णम् तमसस्तु पारे। सर्वाणि रूपाणि विचित्य धीरो नामानि कृत्वा भिवदन्यदास्ते॥
धाता पुरस्ताद्यमुदाजहार शक्रफ्प्रविद्वान् प्रतिशश्चतस्र। तमेव विद्वान् अमृत इह भवति नान्यत्पन्था अयनाय विद्यते॥
यज्ञेन यज्ञमयजंत देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्। ते ह नाकं महिमानः सचंत यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवा:॥
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हे परम पुराणपुरुष, इस जीवन को स्वीकार करो। और मेरे पास कुछ भी नहीं है। जो कुछ भी है वह आपको समर्पित है। ॐ शांति शांति शांति ॥ ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१९ नवंबर २०२२