Thursday, 14 November 2024

भगवान में श्रद्धा, विश्वास व आस्था और आत्म-विश्वास --- ये वे कवच हैं, जो सदा हमारी रक्षा करेंगे ---

 भगवान में श्रद्धा, विश्वास व आस्था और आत्म-विश्वास --- ये वे कवच हैं, जो सदा हमारी रक्षा करेंगे। भगवान हमें कभी नहीं छोड़ सकते। वे सदा हमारे साथ एक होकर रहेंगे। हर परिस्थिति में हम विजयी होंगे।

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​श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान हमें हर समय निरंतर मूर्धा में अक्षरब्रह्म ओंकार के मानसिक जप का आदेश देते हैं। दांतों के ऊपरी भाग तालु से आज्ञाचक्र तक के भाग को मूर्धा कहते हैं। बृहदारण्यकोपनिषद में ऋषि याज्ञवल्क्य ने गार्गी को बताया है कि "अक्षरब्रह्म ओंकार ही परमात्मा है, जिसके अनुशासन में सूर्य और चंद्र स्थित हैं। श्रुतियों से जिसका वर्णन किया गया है जो कभी नष्ट नहीं होता वह परमात्मा ही ब्रह्म है।" (बृह. उ. ३/८/९)॥
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इसी बात को गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने बताया है --
"अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते।
भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसंज्ञितः॥८:३॥"
अर्थात् - परम अक्षर (अविनाशी) तत्त्व ब्रह्म है; स्वभाव (अपना स्वरूप) अध्यात्म कहा जाता है; भूतों के भावों को उत्पन्न करने वाला विसर्ग (यज्ञ, प्रेरक बल) कर्म नाम से जाना जाता है॥
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"तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्॥८:७॥"
अर्थात् - इसलिए, तुम सब काल में मेरा निरन्तर स्मरण करो; और युद्ध (सांसारिक दायीत्व) करो। मुझ में अर्पण किये मन, बुद्धि से युक्त हुए निःसन्देह तुम मुझे ही प्राप्त होओगे॥
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"सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च।
मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम्॥८:१२॥"
अर्थात् - सब (इन्द्रियों के) द्वारों को संयमित कर मन को हृदय में स्थिर करके और प्राण को मस्तक (मूर्धा) में स्थापित करके योगधारणा में स्थित हुआ।
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"ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्।
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्॥८:१३॥"
अर्थात् - जो पुरुष ओऽम् इस एक अक्षर ब्रह्म का उच्चारण करता हुआ और मेरा स्मरण करता हुआ शरीर का त्याग करता है, वह परम गति को प्राप्त होता है॥
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अपने जीवन काल में उपरोक्त योगाभ्यास से ही हम राग-द्वेष और अहंकार से मुक्त हो सकते हैं। भगवान श्रीकृष्ण के अनुसार राग-द्वेष से उत्पन्न द्वंद्व ही पुनर्जन्म का कारण है। (गीता ७:२७)॥ राग-द्वेष और अहंकार से मुक्ति और मोक्ष की प्राप्ति हम उपरोक्त साधना से कर सकते हैं।
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भगवान का ध्यान नित्य नियमित रूप से इसी समय से अवश्य करें। आप सब का कल्याण होगा। ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१४ नवंबर २०२४

भगवान ने जो देना था वह सब कुछ दिया है, अब यह मुझ पर है कि मैं उसका कितना सदुपयोग करूँ ---

 भगवान ने जो देना था वह सब कुछ दिया है। अब यह मुझ पर है कि मैं उसका कितना सदुपयोग करूँ। भगवान ने अपनी ओर से कोई कमी नहीं रखी है, कमी मेरे स्वयं के प्रयासों की है। बाहर की परिस्थितियों, वातावरण आदि पर दोषारोपण गलत है। अब एक ही मार्ग बचा है वह है साधना द्वारा स्वयं को भगवान में विलीन कर देना। मेरा कोई पृथक अस्तित्व न रहे। एकमात्र अस्तित्व सिर्फ परमात्मा का ही हो।

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यदि भगवान में आस्था है तो कभी भी निराश न हों। चाहे कितनी भी घोर विपत्तियों के बादल मंडरा रहे हों, चारों ओर अंधकार ही अंधकार ही हो, कहीं से भी कोई आशा की किरण नहीं दिखाई दे रही हो, अपना हाथ उनके हाथ में थमा दो, यह संसार उनका है, हमारी रक्षा सुनिश्चित है। इस शरीर में प्राण रहे या न रहे, कोई अंतर नहीं पड़ता। लेकिन निराशा, भीरुता लाना -- नीच कायरता है। गीता में भगवान कहते हैं --
"क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप॥२:३॥"
अर्थात् -- हे पार्थ क्लीव (कायर) मत बनो। यह तुम्हारे लिये अशोभनीय है, हे परंतप हृदय की क्षुद्र दुर्बलता को त्यागकर खड़े हो जाओ॥
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"तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून् भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम्।
मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्॥११:३३॥"
अर्थात् -- इसलिए तुम उठ खड़े हो जाओ और यश को प्राप्त करो; शत्रुओं को जीतकर समृद्ध राज्य को भोगो। ये सब पहले से ही मेरे द्वारा मारे जा चुके हैं। हे सव्यसाचिन्! तुम केवल निमित्त ही बनो॥"
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"यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते।
हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते॥१८:१७॥"
अर्थात् -- जिस पुरुष में अहंकार का भाव नहीं है और बुद्धि किसी (गुण दोष) से लिप्त नहीं होती, वह पुरुष इन सब लोकों को मारकर भी वास्तव में न मरता है और न (पाप से) बँधता है॥
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"मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि।
अथ चेत्त्वमहङ्कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि॥१८:५८॥"
अर्थात् -- मच्चित्त होकर तुम मेरी कृपा से समस्त कठिनाइयों (सर्वदुर्गाणि) को पार कर जाओगे और यदि अहंकारवश (इस उपदेश को) नहीं सुनोगे? तो तुम नष्ट हो जाओगे॥
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वाल्मीकि रामायण में भी भगवान का वचन है --
"सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते।
अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद् व्रतं मम॥"
अर्थात् -- जो एक बार भी मेरी शरण में आकर 'मैं तुम्हारा हूँ' ऐसा कहकर रक्षा की याचना करता है, उसे मैं सम्पूर्ण प्राणियों से अभय कर देता हूँ – यह मेरा व्रत है।
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भगवान के इतने स्पष्ट आश्वासन हैं, फिर कैसी तो निराशा? और कैसी भीरुता?
भगवान हैं, यहीं पर इसी समय, सर्वत्र और सर्वदा हैं। फिर काहे का अवसाद? मुझे सदा प्रसन्न रहना चाहिये। ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१४ नवंबर २०२४