जीवन में परमात्मा की पूर्ण अभिव्यक्ति हो ...
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फेसबुक आदि सामाजिक मंचों पर आने का मेरा कोई उद्देश्य विशेष नहीं है| भगवान के प्रति हृदय में कूट कूट कर भरा हुआ प्रेम, व्यक्त होने के लिए स्वतः ही मुझे इन मंचों पर आने को बाध्य कर देता है| मेरी कोई निजी कामना, आकांक्षा या अभिलाषा नहीं है, सिर्फ हृदय में एक तड़प है परमात्मा को व्यक्त करने की| उसके लिए पता नहीं कहाँ-कहाँ किन-किन अज्ञात लोकों में और भी
अनेक जन्म लेने पड़ेंगे| पूर्वजन्मों के कर्म अधिक अच्छे नहीं थे, इसीलिए व्यक्तित्व में अनेक कमियों के साथ प्रतिकूलताओं में यह जन्म हुआ| भगवान से प्रार्थना है कि आगे जो भी जन्म मिलें उनमें जन्म से ही वैराग्य और भक्ति हो, व अनुकूल वातावरण मिले|
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जो भी हो, मुझे अब कुछ भी शिकायत, आलोचना या निंदा करने को नहीं है| इस भौतिक देह से जुड़े रहने के लिए कोई न कोई तो त्रिगुणाधीन वासना रहती ही है, अन्यथा यह शरीर उसी समय छूट जाता है|
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स्वधर्मानुष्ठान में रत रहने के लिए गीता में भगवान हमें त्रिगुणातीत होने का आदेश देते हैं ...
"त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन| निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्||२:४५||"
विवेक-बुद्धि से रहित कामपरायण पुरुषों के लिए वेद त्रैगुण्यविषयक हैं, परंतु हे अर्जुन, तूँ असंसारी, निष्कामी, निर्द्वन्द्व, और नित्य सत्त्वस्थ हो|
नित्य सत्वस्थ का अर्थ है ... सदा सत्त्वगुण के आश्रित रहना|
निर्द्वंद्व का अर्थ है ... सुख-दुःख के परस्पर विरोधी युग्मों से रहित होना|
निर्योगक्षेम का अर्थ है ... (अप्राप्त वस्तु को प्राप्त करनेका नाम योग है और प्राप्त वस्तु के रक्षण का नाम क्षेम है) योगक्षेमको न चाहनेवाला|
आत्मवान् का अर्थ है आत्म-विषयों में प्रमादरहित रहना|
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इस जीवन को भगवान ही जी रहे हैं, मैं अकिंचन तो उन के एक निमित्तमात्र उपकरण से अधिक कुछ भी नहीं हूँ| जीवन एक सतत् प्रक्रिया है| कोई मृत्यु नहीं होती| यह शरीर बेकार हो जाने पर या कर्मफलानुसार शांत हो जाता है, और कोई नई देह किसी अन्य परिवेश में मिल जाती है| जब भगवान को समर्पित हो ही गए हैं, तो किसी भी तरह की कोई आकांक्षा, कामना या इच्छा भी नहीं रहनी चाहिए| जीवन में परमात्मा की पूर्ण अभिव्यक्ति हो| इति||
ॐ तत्सत् !! भगवान की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति आप सब महान निजात्मगण को नमन !!
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कृपा शंकर
झुंझुनूं (राजस्थान)
५ नवंबर २०२०
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पुनश्च: भगवान ही हमारा उद्धार कर सकते हैं| हमारे में कोई सामर्थ्य नहीं है| एक अबोध बालक जब मल-मूत्र रूपी विष्ठा में पड़ा होता है तब माँ ही उसे स्वच्छ कर सकती है| अपने आप तो वह उज्ज्वल नहीं हो सकता| यह सांसारिकता भी किसी विष्ठा से कम नहीं है| भगवान ही हमारे माता-पिता हैं, उनके सिवाय हमारा अन्य कोई नहीं है|