Monday, 14 April 2025

हम इस संसार की मानसिक दासता से मुक्त हों ---

हम इस संसार की मानसिक दासता से मुक्त हों ---
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संसार की मानसिक दासता -- एक बड़ी दुःखद स्थिति है, जिसका एकमात्र कारण हमारा राग-द्वेष और अहंकार रूपी मोहकलिल (मोह रूपी कीचड़) है। राग-द्वेष और अहंकार से मुक्ति -- वीतरागता है। वीतराग व्यक्ति किसी का दास नहीं हो सकता, क्योंकि वह मोहात्मक अविवेक कालिमा का उल्लंघन कर चुका है। वीतराग व्यक्ति ही निःस्पृह और स्थितप्रज्ञ हो सकता है। गीता में भगवान हमें स्थितप्रज्ञ होने का उपदेश देते हैं। इसके लिए स्वाध्याय और साधना करनी पड़ेगी। शास्त्रों के सिर्फ स्वाध्याय (अध्ययन), और प्रवचन सुनने मात्र से परमात्मा की प्राप्ति नहीं हो सकती। साधना (उपासना) अपरिहार्य है।
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भगवान कहते हैं --
"यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति।
तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च॥२:५२॥"
"श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला।
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि॥२:५३॥"
अर्थात् - जब तुम्हारी बुद्धि मोहरूप दलदल (कलिल) को तर जायेगी तब तुम उन सब वस्तुओं से निर्वेद (वैराग्य) को प्राप्त हो जाओगे? जो सुनने योग्य और सुनी हुई हैं॥ ॥२:५२॥
जब अनेक प्रकार के विषयों को सुनने से विचलित हुई तुम्हारी बुद्धि आत्मस्वरूप में अचल और स्थिर हो जायेगी तब तुम (परमार्थ) योग को प्राप्त करोगे॥ ॥२:५३॥
When thy reason has crossed the entanglements of illusion, then shalt thou become indifferent both to the philosophies thou hast heard and to those thou mayest yet hear. ॥२:५२॥
When the intellect, bewildered by the multiplicity of holy scripts, stands unperturbed in blissful contemplation of the Infinite, then hast thou attained Spirituality. ॥२:५३॥
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अर्जुन पूछते हैं --
"स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव।
स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम्॥२:५४॥"
अर्जुन ने कहा -- हे केशव समाधि में स्थित स्थिर बुद्धि वाले पुरुष का क्या लक्षण है? स्थिर बुद्धि पुरुष कैसे बोलता है, कैसे बैठता है और कैसे चलता है? ॥२:५४॥
Arjuna asked: My Lord! How can we recognize the saint who has attained Pure Intellect, reached this state of Bliss, and whose mind is steady? how does he talk, how does he live, and how does he act? ॥२:५४॥
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भगवान कहते है --
"प्रजहाति यदा कामान् सर्वान् पार्थ मनोगतान्।
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते॥२:५५॥"
"दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते॥२:५६॥"
"यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्।
नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥२:५७॥"
"यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥२:५८॥"
"विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते॥२:५९॥"
अर्थात् -- श्रीभगवान् ने कहा -- हे पार्थ? जिस समय पुरुष मन में स्थित सब कामनाओं को त्याग देता है और आत्मा से ही आत्मा में सन्तुष्ट रहता है? उस समय वह स्थितप्रज्ञ कहलाता है॥ ॥२:५५॥
दुख में जिसका मन उद्विग्न नहीं होता सुख में जिसकी स्पृहा निवृत्त हो गयी है। जिसके मन से राग भय और क्रोध नष्ट हो गये हैं, वह मुनि स्थितप्रज्ञ कहलाता है॥ ॥२:५६॥
सब जगह आसक्तिरहित हुआ जो मनुष्य शुभ-अशुभको प्राप्त करके न तो अभिनन्दित होता है और न द्वेष करता है, उसकी बुद्धि प्रतिष्ठित है॥ ॥२:५७॥
जिस तरह कछुआ अपने अङ्गों को सब ओर से समेट लेता है, ऐसे ही जिस काल में यह कर्मयोगी इन्द्रियों के विषयों से इन्द्रियों को सब प्रकार से समेट लेता (हटा लेता) है, तब उसकी बुद्धि प्रतिष्ठित हो जाती है। ॥२:५८॥
निराहारी देही पुरुष से विषय तो निवृत्त (दूर) हो जाते हैं? परन्तु (उनके प्रति) राग नहीं परम तत्व को देखने पर इस (पुरुष) का राग भी निवृत्त हो जाता है। (२:५९)
Lord Shri Krishna replied: When a man has given up the desires of his heart and is satisfied with the Self alone, be sure that he has reached the highest state. ॥२:५५॥
The sage, whose mind is unruffled in suffering, whose desire is not roused by enjoyment, who is without attachment, anger, or fear - take him to be one who stands at that lofty level. ॥२:५६॥
He who wherever he goes is attached to no person and to no place by ties of flesh; who accepts good and evil alike, neither welcoming the one nor shrinking from the other - take him to be one who is merged in the Infinite. ॥२:५७॥
He who can withdraw his senses from the attraction of their objects, as the tortoise draws his limbs within its shell - take it that such a one has attained Perfection. ॥२:५८॥
The objects of sense turn from him who is abstemious. Even the relish for them is lost in him who has seen the Truth. ॥२:५९॥
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आजकल भगवान का खूब अनुग्रह मुझ पर है। प्रातः उठते ही वे मुझे पकड़ लेते हैं, और दिन भर छोड़ते नहीं हैं। अपनी स्मृति में भी हर समय रखते हैं। उनके हृदय में झांक कर देखता हूँ, तो स्वयं को ही वहाँ पाता हूँ। यह उनकी विशेष कृपा है। मेरा सम्पूर्ण अस्तित्व उन को समर्पित है।
ॐ तत्सत् !! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !!
कृपा शंकर

१५ अप्रेल २०२३ 

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