सिर्फ प्रवचनों को सुनने, या उपदेशों को पढ़ने मात्र से किसी को परमात्मा की प्राप्ति नहीं हो सकती ---
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"नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम् ॥"
"नाविरतो दुश्चरितान्नाशान्तो नासमाहितः।
अर्थात् -- "यह 'आत्मा' प्रवचन द्वारा लभ्य नहीं है, न मेधाशक्ति से, न बहुत शास्त्रों के श्रवण से 'यह' लभ्य है। यह आत्मा जिसका वरण करता है उसी के द्वारा 'यह' लभ्य है, उसी के प्रति यह 'आत्मा' अपने कलेवर को अनावृत करता है।"
''जो दुष्कर्मों से विरत नहीं हुआ है, जो शान्त नहीं है, जो अपने में एकाग्र (समाहित) नहीं है अथवा जिसका मन शान्त नहीं है ऐसे किसी को भी यह 'आत्मा' प्रज्ञा द्वारा प्राप्त नहीं हो सकता।"
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मैं जो आध्यात्मिक लेख लिखता हूँ, उनसे पता नहीं किसी को लाभ होता है या नहीं। आपके सामने मिठाई पड़ी है तो आनंद उसे खाने में हैं, न कि उसके विवरण में। आध्यात्मिक लेखों या पुस्तकों को सिर्फ पढ़ने मात्र से कोई लाभ नहीं है। उनके उपदेशों के अनुसार आचरण करना पड़ता है। पुस्तकों से पढ़कर कोई वायुयान का पायलट, या जलयान का कप्तान नहीं बन सकता। तैरने के बारे में पढ़ने मात्र से कोई तैरना नहीं सीख सकता। श्रुति भगवती को, गीता को, या अन्य धर्मशास्त्रों को पढ़ने मात्र से भगवान नहीं मिल सकते, उन के उपदेशों का चिंतन, मनन, निदिध्यासन करते हुए उनके अनुसार आचरण / ध्यान / उपासना करनी पड़ती है।
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जैसे वातावरण में जो रहता है, वह वैसा ही बन जाता है। अतः अब से मैं लिखने के स्थान पर पूरी सृष्टि के साथ एक होकर परमात्मा के ध्यान में ही अधिक से अधिक समय व्यतीत करना चाहता हूँ। यदि मैं एक घंटे पढ़ूँगा तो आठ घंटे भगवान का ध्यान करूँगा। ध्यान साधना/उपासना का समय बढ़ाते बढ़ाते अगले कुछ दिनों में ही नित्य कम से कम आठ घंटे तक करने का संकल्प है। मेरे पास अधिक समय उपलब्ध नहीं है। जीवन बहुत अल्प है जिसका कोई भरोसा नहीं है। मुझे भी ज्ञान, भक्ति, वैराग्य, और उचित वातावरण चाहिए। आप सब से भी अनुरोध है कि मेरा साथ न छोड़ें। मुझ से जुड़ कर परमात्मा में स्थित रहें।
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ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२२ मई २०२३
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