Sunday, 8 June 2025

हम जो भी साधना/उपासना करते हैं, उसमें कर्ताभाव नहीं होना चाहिए ---

हम जो भी साधना/उपासना करते हैं, उसमें कर्ताभाव नहीं होना चाहिए ---
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जहाँ तक कर्मयोग की बात है, सनातन-धर्म का बड़े से बड़ा उपदेश यह है कि हम अपने हरेक कर्म को, चाहे वह कितना भी बड़ा या छोटा हो, कर्ताभाव से मुक्त होकर, भगवान को समर्पित होकर करें। ऐसी स्थिति में कोई भी पाप हमें छू नहीं सकता। भगवान कहते हैं --

"यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्॥९::२७॥"
अर्थात् -- हे कौन्तेय ! तुम जो कुछ कर्म करते हो, जो कुछ खाते हो, जो कुछ हवन करते हो, जो कुछ दान देते हो और जो कुछ तप करते हो, वह सब तुम मुझे अर्पण करो॥
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"शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनैः।
संन्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि॥९:२८॥"
अर्थात् -- इस प्रकार तुम शुभाशुभ फलस्वरूप कर्मबन्धनों से मुक्त हो जाओगे; और संन्यासयोग से युक्तचित्त हुए तुम विमुक्त होकर मुझे ही प्राप्त हो जाओगे॥
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"तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व, जित्वा शत्रून् भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम्।
मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्॥११:३३॥"
अर्थात् - इसलिए तुम उठ खड़े हो जाओ और यश को प्राप्त करो; शत्रुओं को जीतकर समृद्ध राज्य को भोगो। ये सब पहले से ही मेरे द्वारा मारे जा चुके हैं। हे सव्यसाचिन्! तुम केवल निमित्त ही बनो॥
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"यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते।
हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते॥१८:१७॥"
अर्थात् - जिस पुरुष में अहंकार का भाव नहीं है और बुद्धि किसी (गुण दोष) से लिप्त नहीं होती, वह पुरुष इन सब लोकों को मारकर भी वास्तव में न मरता है और न (पाप से) बँधता है॥
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भगवान ने इतनी बड़ी बात कह दी है, इतना बड़ा आश्वासन दे दिया है, फिर भी हम किन्तु-परंतु आदि में पड़े रहते हैं, यह हमारा दुर्भाग्य है।
हम जो भी साधना/उपासना/आराधना करते हैं, उसमें भी कर्ताभाव नहीं होना चाहिए। निमित्त मात्र होकर ही सारे कार्य हमारे माध्यम से संपादित होने चाहिएँ।
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इस विषय पर अनेक आत्म अनुभूतियाँ है, जिन्हें लिखने का मुझे धैर्य नहीं है। किसी अन्य के लिए उनका कोई उपयोग भी नहीं है। मेरा एकमात्र उद्देश्य आपके हृदय में भक्ति जागृत करनी है। अन्य कोई दूसरा उद्देश्य नहीं है।
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
८ जून २०२२
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पुनश्च:-- "कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥२:४७॥"
कर्म करने मात्र में तुम्हारा अधिकार है? फल में कभी नहीं। तुम कर्मफल के हेतु वाले मत होना और अकर्म में भी तुम्हारी आसक्ति न हो॥

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