"धर्म-अधर्म", "पाप-पुण्य"; और "अकिंचन" व "सर्वस्व-अनन्य" भाव ---
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"ॐ नमो भगवते वासुदेवाय"
"ॐ विश्वं विष्णु: वषट्कारो भूत-भव्य-भवत-प्रभुः।
भूत-कृत भूत-भृत भावो भूतात्मा भूतभावनः॥१॥"
विष्णु सहस्त्रनाम का उपरोक्त पहिला श्लोक ही पर्याप्त है, गहन ध्यान में जाने के लिए। मानसिक रूप से इसे पढ़ते ही मुझे ध्यान लग जाता है। इससे आगे चाहकर भी मैं नहीं बढ़ सकता। वे स्वयं ही यह समस्त सृष्टि बन गए हैं। उन की इच्छा कि हम सब उन्हें अपने निज जीवन में व्यक्त करें। वे धर्म और अधर्म से परे हैं। वे चाहते हैं कि हम भी पाप-पुण्य और धर्म-अधर्म से ऊपर उठें। मेरे लिए तो उनकी चेतना में निरंतर स्थिति ही धर्म है, और उनकी विस्मृति अधर्म है। आगे उनकी परम कृपा है।
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"अकिंचन" व "सर्वस्व-अनन्य" भाव ---
साधना का आरंभ सदा अकिंचन भाव से होता है जो गुरुकृपा से सर्वस्व अनन्य भाव में बदल जाता है। यह गुरुकृपा से समझ में आने वाला विषय है, अतः इस पर इस समय कोई चर्चा नहीं करनी चाहिये।
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अंतिम बात जो इस समय यहाँ करना चाहता हूँ, वह गीता में भगवान का निम्न आदेश है --
"त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्॥२:४५॥"
स्वनामधन्य भाष्यकार भगवान आचार्य शंकर के अनुसार इसका भावार्थ है कि -- "विवेक बुद्धि से रहित कामपरायण पुरुषों के लिये वेद त्रैगुण्यविषयक हैं, अर्थात् तीनों गुणों के कार्यरूप संसार को ही प्रकाशित करनेवाले हैं। परंतु हे अर्जुन तूँ असंसारी, निष्कामी और निर्द्वन्द्व हो। सुख-दुःख के हेतु जो परस्पर विरोधी युग्म हैं, उनका नाम द्वन्द्व है; उनसे रहित हो, और नित्य सत्त्वस्थ अर्थात् सदा सत्त्वगुण के आश्रित, तथा निर्योगक्षेम हो। अप्राप्त वस्तुको प्राप्त करने का नाम योग है और प्राप्त वस्तु के रक्षण का नाम क्षेम है। योग-क्षेम को प्रधान माननेवाले की कल्याण-मार्ग में प्रवृत्ति अत्यन्त कठिन है, अतः तू योगक्षेम को न चाहनेवाला हो, तथा आत्मवान् हो, अर्थात् (आत्मविषयों में) प्रमादरहित हो। तुझ स्वधर्मानुष्ठान में लगे हुये के लिये यह उपदेश है।"
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भगवान चाहते हैं कि हम त्रिगुणातीत, निर्द्वन्द्व, नित्यसत्वस्थ, निर्योगक्षेम, व आत्मवान् बनें। यह विषय भी गुरुकृपा और हरिःकृपा से ही चरितार्थ हो सकता है।
एक साधक के लिए स्वर्ग एक प्रलोभन है, और नर्क एक भय। अतः स्वर्ग-नर्क, पाप-पुण्य, और धर्म-अधर्म की चेतना से ऊपर उठना ही पड़ेगा। ईश्वर में निरंतर स्थिति ही धर्म है, और ईश्वर की विस्मृति ही अधर्म। निरंतर ईश्वर यानि परमात्मा में हम स्थित रहें। जहां तक मैं समझ सकता हूँ -- वीतराग और स्थितप्रज्ञ होना ही हमारा परमधर्म है।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
८ जून २०२५
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