जिनके हृदय में परमात्मा होते हैं, मुझे उनसे बात करने की कोई आवश्यकता ही नहीं पड़ती। उनको देखते ही उनके भाव समझ में आ जाते हैं। वे भी मेरे भावों को समझ जाते हैं।
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भगवान से मैं किसी भी तरह की कोई प्रार्थना करने में असमर्थ हूँ। वे तो भाव उठने से पहिले ही समझ जाते हैं कि मैं क्या सोचने वाला हूँ। अतः प्रार्थना करना व्यर्थ है। उनका स्थायी निवास तो मेरे हृदय में ही है। क्या पता, हो सकता है, मैं भी उनके हृदय में ही हूँ।
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !!
९ जून २०२२
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