परमात्मा की इस सृष्टि का अंधकार और प्रकाश ही सुख व दुःख के रूप में हमारे जीवन में व्यक्त हो रहा है ---
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परमात्मा का प्रकाश ही सुख है, और उसका अभावरूपी अंधकार ही दुःख है। जैसे भोर में सूर्योदय का होना सुनिश्चित है, वैसे ही हम सब के जीवन में परमात्मा के प्रकाश का प्रस्फुटित होना भी सुनिश्चित है। असत्य का अंधकार शाश्वत नहीं है। हम सदा अंधकार में नहीं रह सकते। परमात्मा से दूरी का परिणाम दुःख है, और परमात्मा से समीपता सुख है। दुःख और सुख -- हमारे स्वयं के कर्मों के फल हैं। प्रारब्ध में जो लिखा है वह तो मिल कर ही रहेगा। उसकी पीड़ा परमात्मा की उपासना से कम की जा सकती है, लेकिन पूरी तरह समाप्त नहीं की जा सकती। फिर भी सुख-दुःख रूपी माया से परे जाने की निरंतर साधना करते रहना चाहिए। अन्य कोई उपाय नहीं है। गीता में भगवान कहते हैं --
"दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते॥७:१४॥"
अर्थात् -- यह दैवी त्रिगुणमयी मेरी माया बड़ी दुस्तर है। परन्तु जो मेरी शरण में आते हैं, वे इस माया को पार कर जाते हैं॥
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यह देवसम्बन्धिनी त्रिगुणात्मिका वैष्णवी माया बड़ी दुस्तर है। इसलिये किन्तु-परंतु आदि सब तरह के धर्मों को त्याग कर, अपनी ही आत्मा में "सर्वात्मभाव" से शरण ग्रहण करनी होगी। यही इस माया से पार जाने यानि संसारबन्धन से मुक्त होने का एकमात्र उपाय है। इसके लिए कठोपनिषद के अनुसार बताए हुए सद्गुरु से मार्गदर्शन लेना होगा। सद्गुरु की प्राप्ति भी तभी होगी जब स्वयं में शिष्यत्व का भाव जगेगा। तब तक भगवान से ही प्रार्थना और उपासना करें। निश्चित रूप से भगवान की कृपा होगी।
जैसा भी मेरी सीमित अल्प बुद्धि से समझ में आया, वैसा ही लिख दिया। अच्छा-बुरा सब कुछ श्रीकृष्ण समर्पण!!
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
९ अप्रेल २०२३
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