भौतिक देहों में सुख ढूँढने वाला व्यक्ति परमात्मा को कभी भी किसी भी परिस्थिति में प्राप्त नहीं कर सकता ---
(प्रश्न १) कोई व्यक्ति जो अपने परिवार, सगे सम्बन्धियों व मित्रों के साथ रहता है, क्या सत्य यानि ईश्वर का साक्षात्कार कर सकता है?
(प्रश्न २) ऐसी क्या मजबूरी थी जो मुझे इस संसार में जन्म लेना पड़ा?
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विभिन्न देहों में मेरे ही प्रियतम निजात्मन, मुझे उपरोक्त प्रश्नों का उत्तर मिल चुका है जो आपके साथ साझा कर रहा हूँ। ये अति गहन प्रश्न हैं लेकिन उनका उत्तर मेरे दृष्टिकोण से बड़ा ही सरल है। सबसे अधिक महत्वपूर्ण यह बात है कि भौतिक देहों में सुख ढूँढने वाला व्यक्ति ईश्वर को कभी भी किसी भी परिस्थिति में प्राप्त नहीं कर सकता।
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विवाह या किसी opposite sex का साथ हानिकारक नहीं होता है, लेकिन उसमें नाम रूप में आसक्ति आ जाये कि मैं यह शरीर हूँ, मेरा साथी भी शरीर है, तब दुर्बलता आ जाती है, और इस से अपकार ही होता है। वैवाहिक संबंधों में शारीरिक सुख की अनुभूति से ऊपर ही उठना होगा। सुख और आनंद किसी के शरीर में नहीं हैं। यह एक अवस्था है। यह अपने अपने दृष्टिकोण पर निर्भर करता है कि हमारा वैवाहिक जीवन कैसा हो। इसमें सुकरात, संत तुकाराम व संत नामदेव आदि के उदाहरण विस्तार भय से यहाँ नहीं दे रहा।
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हम ईश्वर की ओर अपने स्वयं की बजाय अनेक आत्माओं को भी साथ लेकर चल सकते हैं। ये सारे के सारे आत्मन हमारे ही हैं। परमात्मा के साथ तादात्म्य स्थापित करने से पूर्व हम अपनी चेतना में अपनी पत्नी, बच्चों और आत्मजों के साथ एकता स्थापित करें। यदि हम उनके साथ अभेदता स्थापित नहीं कर सकते तो सर्वस्व (परमात्मा) के साथ भी अपनी अभेदता स्थापित नहीं कर सकते।
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क्रिया और प्रतिक्रया समान और विपरीत होती है। यदि मैं आपको प्यार करता हूँ तो आप भी मुझसे प्यार करेंगे। जिनके साथ आप एकात्म होंगे तो वे भी आपके साथ एकात्म होंगे ही। आप उनमें परमात्मा के दर्शन करेंगे तो वे भी आप में परमात्मा के दर्शन करने को बाध्य हैं।
पत्नी को पत्नी के रूप में त्याग दीजिये, आत्मजों को आत्मजों के रूप में त्याग दीजिये, और मित्रों को मित्र के रूप में देखना त्याग दीजिये। उनमें आप परमात्मा का साक्षात्कार कीजिये। स्वार्थमय और व्यक्तिगत संबंधों को त्याग दीजिये और सभी में परमात्मा को देखिये। आप की साधना उनकी भी साधना है। आप का ध्यान उन का भी ध्यान है। आप उन्हें ईश्वर के रूप में स्वीकार कीजिये।
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और भी सरल शब्दों में सार की बात यह है की पत्नी को अपने पति में परमात्मा के दर्शन करने चाहियें, और पति को अपनी पत्नी में अन्नपूर्णा जगन्माता के। उन्हें एक दुसरे को वैसा ही प्यार करना चाहिए जैसा वे परमात्मा को करते हैं। और एक दुसरे का प्यार भी परमात्मा के रूप में ही स्वीकार करना चाहिए। वैसा ही अन्य आत्मजों व मित्रों के साथ होना चाहिये। इस तरह आप अपने जीवित प्रिय जनों का ही नहीं बल्कि दिवंगत प्रियात्माओं का भी उद्धार कर सकते हैं। अपने प्रेम को सर्वव्यापी बनाइये, उसे सीमित मत कीजिये।
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आप में उपरोक्त भाव होगा तो आप के यहाँ महापुरुषों का जन्म संतान रूप में होगा। यही एकमात्र मार्ग है जिस से आप अपने बाल बच्चों, सगे सम्बन्धियों व मित्रों के साथ परमात्मा का साक्षात्कार कर सकते है, अपने सहयोगी को भी उसी प्रकार लेकर चल सकते है जिस प्रकार पृथ्वी चन्द्रमा को लेकर सूर्य की परिक्रमा करती है। ईश्वर की प्रेरणा से ही मैं यह सब यह लिख पाया हूँ।
आप सब विभिन्न देहों में मेरी ही निजात्मा हैं, मैं आप सब को प्रेम करता हूँ और सब में मेरे प्रभु का दर्शन करता हूँ। आप सब को प्रणाम। ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१३ अक्टूबर २०२५
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