बिना श्रद्धा के की गई कोई भी साधना निष्फल होती है। वह समय को नष्ट करना है। हमारी श्रद्धा सात्विक है या राजसिक या तामसिक, इनके भी अलग-अलग फल है। श्रीमद्भगवद्गीता के सत्रहवें अध्याय "श्रद्धात्रय विभाग योग" में इसका स्पष्ट निर्देश है। जिस साधना में श्रद्धा नहीं है वह भूल कर भी नहीं करनी चाहिए। उससे कुछ भी नहीं मिलेगा। परमात्मा (और जगन्माता) के जिस भी रूप में आपकी श्रद्धा है, उसी की साधना करनी चाहिए। गीता के अनुसार जो यज्ञ, दान, तप और कर्म अश्रद्धापूर्वक किया जाता है, वह 'असत्' कहा जाता है; वह न तो इस लोक में, और न ही मृत्यु के पश्चात (उस लोक में) लाभदायक होता है।
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जिन का उपनयन संस्कार हो चुका है, उन द्विजों को गायत्री जप, प्राणायाम और सविता देव की भर्गः ज्योति का ध्यान नित्य नियमित पूर्ण श्रद्धा सहित करना चाहिए। तत्पश्चात वे किसी उद्देश्य विशेष के लिए इस के साथ साथ अन्य साधना भी कर सकते हैं।
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गीता के अनुसार परमात्मा का सर्वश्रेष्ठ नाम --"ॐ-तत्-सत्" है। ऊँ, तत् और सत् -- इन तीनों नामों से जिस परमात्मा का निर्देश किया गया है, उसी परमात्मा ने सृष्टि के आदि में वेदों, ब्राह्मणों और यज्ञों की रचना की है। वैदिक सिद्धान्तों को मानने वाले श्रद्धालुओं की शास्त्र विधि से नियत यज्ञ, दान और तपरूप क्रियाएँ सदा -- "ऊँ" --- इस परमात्मा के नाम का उच्चारण करके ही आरम्भ होती हैं। गीता के सत्रहवें अध्याय में इसका स्पष्ट निर्देश है। (गीता के आठवें अध्याय के अनुसार तो हर समय निरंतर हमें मूर्धा में ओंकार का जप करते रहना चाहिये)। ॐ तत्सत्॥
कृपा शंकर
११ अक्तूबर २०२५
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