"ऊर्ध्वमूल" का रहस्य --- (भाग २)
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"जब हम भगवान को पाने के लिये अपनी पूर्ण क्षमता से प्रयास करते हैं तब भगवान भी हम से बहुत प्रसन्न होते हैं, और अपने रहस्य अनावृत करने लगते हैं। पिछले लेख में हमने गीता के पंद्रहवें अध्याय पुरुषोत्तम योग के प्रथम श्लोक की विवेचना की थी, जो सर्वाधिक रहस्यमय है। अब वह रहस्य, रहस्य नहीं रहा है। धीरे धीरे थोड़ा थोड़ा हम और आगे बढ़ेंगे। दूसरे, तीसरे और चौथे श्लोकों में भगवान कहते हैं --
अधश्च मूलान्यनुसन्ततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके॥१५:२॥"
"न रूपमस्येह तथोपलभ्यते नान्तो न चादिर्न च संप्रतिष्ठा।
अश्वत्थमेनं सुविरूढमूल मसङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा॥१५:३॥"
"ततः पदं तत्परिमार्गितव्यम् यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः।
तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी॥१५:४॥"
अर्थात् - उस वृक्ष की शाखाएं गुणों से प्रवृद्ध हुईं नीचे और ऊपर फैली हुईं हैं; (पंच) विषय इसके अंकुर हैं; मनुष्य लोक में कर्मों का अनुसरण करने वाली इसकी अन्य जड़ें नीचे फैली हुईं हैं ॥१५:२॥"
इस (संसार वृक्ष) का स्वरूप जैसा कहा गया है वैसा यहाँ उपलब्ध नहीं होता है, क्योंकि इसका न आदि है और न अंत और न प्रतिष्ठा ही है। इस अति दृढ़ मूल वाले अश्वत्थ वृक्ष को दृढ़ असङ्ग शस्त्र से काटकर --- ॥१५:३॥"
--- उस पद का अन्वेषण करना चाहिए जिसको प्राप्त हुए पुरुष पुन: संसार में नहीं लौटते हैं। "मैं उस आदि पुरुष की शरण हूँ, जिससे यह पुरातन प्रवृत्ति प्रसृत हुई है"॥१५:४॥"
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भगवान श्रीकृष्ण का यह संदेश लक्षणात्मक शैली में है। भगवान् श्रीकृष्ण जब कहते हैं कि इस वृक्ष की शाखाएँ ऊपर और नीचे की ओर फैली हुईं हैं, इसका तात्पर्य - देवता, मनुष्य, पशु इत्यादि योनियों से है। "अध" और "ऊर्ध्व" इन दो शब्दों से इन्हीं दो दिशाओं की ओर निर्देश किया गया है।
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जीवों की ऊर्ध्व या अधोगामी प्रवृत्तियों का पोषण प्रकृति के सत्त्व, रज, और तम -- इन तीन गुणों के द्वारा किया जाता है। किसी भी वृक्ष की शाखाओं पर अंकुर या कोपलें होती हैं जहाँ से नई शाखाएं फूटकर निकलती हैं। यहाँ इस रूपक में इन्द्रियों के शब्दस्पर्शादि विषयों को प्रवाल यानि अंकुर कहा गया है।
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इस वृक्ष की गौण जड़ें नीचे फैली हुई हैं। परमात्मा तो इस संसार वृक्ष का अधिष्ठान होने से इसका ऊर्ध्वमूल है, किन्तु इसकी अन्य जड़ें भी हैं जो इस वृक्ष के अस्तित्व को बनाये रखती हैं। हमारे मन में नए नये संस्कार और वासनाएँ अंकित होती रहती हैं। ये वासनाएँ ही अन्य जड़ें हैं, जो मनुष्य को अपनी अभिव्यक्ति के लिये कर्मों में प्रेरित करती रहती हैं। शुभ और अशुभ कर्मों का कारण भी ये वासनाएँ ही हैं।
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यह जो संसारवृक्ष है --, इसका आदि, अंत और मध्य कहीं भी नहीं दिखाई देता। भगवान उसे असङ्गतारूप शस्त्र के द्वारा काटने का आदेश देते हैं। अभी समझना पड़ेगा कि असंगता क्या है?
आचार्य शंकर के अनुसार "पुत्रैषणा (पुत्र की कामना), वित्तैषणा (धन की कामना), और लोकैषणा (लोकों में प्रसिद्धि की कामना) से उपराम हो जाना ही असङ्ग है।"
ऐसे असङ्गशस्त्र से इस संसारवृक्ष को बीजसहित उखाड़कर फेंक देना है।
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लेकिन असंगत्व शब्द का एक दूसरा भी अर्थ मुझे समझ में आ रहा है। वैराग्य को भी हम असंगत्व कह सकते हैं। अनन्य-योग के द्वारा हम कैवल्य पद को प्राप्त कर सकते हैं, यह भी असंगत्व है।
उपासना के समय भगवान जैसी भी प्रेरणा दें, वैसा ही करना चाहिए। मुख्य बात है समर्पण और भक्ति। लेकिन इस संसार-वृक्ष को कैसे भी उखाड़कर फेंक देना है। यह अति गहन साधना द्वारा ही संभव है।
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यह संसार वृक्ष (अश्वत्थ वृक्ष) कोई लौकिक वृक्ष नहीं है। यह सम्पूर्ण जगत का प्रतीक है। कोई भी पुरुष इस संसार वृक्ष का आदि, अन्त, या प्रतिष्ठा नहीं देख सकता। यह वृक्ष हमारे अज्ञान से उत्पन्न होता है, और इसका अस्तित्व वासनाओं के कारण है। आत्मा के अपरोक्ष ज्ञान से यह समूल नष्ट हो जाता है। इस संसार वृक्ष को काटने का एकमात्र शस्त्र "असंग" अर्थात् वैराग्य है। शरीर, मन और बुद्धि से परे जाकर, यानि इन से भी ऊपर उठ कर, यदि हम ध्यान करेंगे तो वैराग्य जागृत होगा। यह वैराग्य ही असंग अस्त्र है। वैराग्य का एक अर्थ -- राग से विमुखता भी है।
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भगवान हमें उस पद का अन्वेषण करने का उपदेश देते हैं, जिसे प्राप्त हुये पुरुष पुनः बापस लौटते नहीं है। साधक को अपना ध्यान ऊर्ध्वमूल परमात्मा में लगाना चाहिये, जहाँ से इस संसार की पुरातन प्रवृत्ति प्रसृत हुई है। हम इस उपदेश का पालन कैसे करें? इसका एकमात्र उपाय है शरणागति और प्रार्थना -- जिसका निर्देश चौथे श्लोक के अन्त में किया गया है कि -- मैं उस आदि पुरुष की शरण में हूँ, जहाँ से यह पुरातन प्रवृत्ति प्रसृत हुई है।
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अब अंतिम बात यह है कि हम "ऊर्ध्वमूल परमब्रह्म परमात्मा का ध्यान कैसे करें।" यह बात साधक को उसकी आध्यात्मिक स्थिति के अनुसार ही आचार्य द्वारा बताई जाती है। उस की सार्वजनिक चर्चा का निषेध है। फिर भी भगवान से आर्त प्रार्थना करने पर किसी न किसी माध्यम से भगवान इसे बता ही देते हैं। सुपात्र साधक को बताने में कोई दोष नहीं है।
ॐ तत्सत् !!
== इति ==
दो भागों की इस शृंखला का समापन आचार्य शंकर के इन वचनों से कर रहा हूँ --
"सत्संगत्वे निस्संगत्वं निस्संगत्वे निर्मोहत्वम् ।
निर्मोहत्वे निश्चलतत्त्वं निश्चलतत्त्वे जीवन्मुक्तिः ॥"
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मेरे से किसी भी तरह की कोई भूलचूक हुई हो तो मुझे क्षमा करें।
कृपा शंकर
२० मई २०२४
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