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"स्थायी रूप से अपना ध्यान सच्चिदानंद ब्रह्म परमात्मा में केन्द्रित करने से सुख-दुःख रूपी सभी अनुभूतियाँ नष्ट हो जाती हैं। हम उन समस्त दुखों को समाप्त कर सकते हैं जो इस संसार में हमें अनुभूत होते हैं।"
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"ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्॥१५:१॥"
अर्थात् -- श्री भगवान् ने कहा -- ज्ञानी पुरुष इस संसार वृक्ष को ऊर्ध्वमूल और अध:शाखा वाला अश्वत्थ और अव्यय कहते हैं, जिसके पर्ण छन्द - वेद हैं, ऐसे संसार वृक्ष को जो जानता है, वह वेदवित् है॥
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इस सृष्टि में जो कुछ भी हो रहा है, उस सब का कारण इस संसार रूपी वृक्ष का अत्यंत सूक्ष्म ऊर्ध्वमूल है। बहुत गहरे ध्यान में हम इसकी अनुभूति भी कर सकते हैं, और देख भी सकते हैं। यह नित्य और महान है। यह ऊर्ध्वमूल ही ब्रह्म है जो चिंतन व समझने का विषय है। एक बार इसकी अनुभूति हो जाये तो फिर वहीं उसी में रहना चाहिए, नीचे नहीं उतरना चाहिए। इस संसार वृक्ष का मूल ऊर्ध्व है, जो सच्चिदानन्द ब्रह्म है।
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जिस प्रकार किसी भी वृक्ष को आधार तथा पोषण अपने ही मूल से प्राप्त होता है, उसी प्रकार जीव और जगत दोनों को अपना आधार और पोषण अनन्त ब्रह्म से ही प्राप्त होता है। अनंत ब्रह्म परमात्मा को ही यहाँ "ऊर्ध्व" कहा गया है। इसे समझाने के लिए ही अश्वत्थ वृक्ष की उपमा दी गई है। जो भी मुमुक्षु इस सत्य-स्वरूप ऊर्ध्वमूल को समझता है, वह वास्तव में वेदवित् है। ज्ञानी पुरुष वह है जो इस नश्वर संसार-वृक्ष तथा इसके शाश्वत ऊर्ध्वमूल परमात्मा को भी समझता है।
ॐ तत्सत्॥
(सावशेष) १९ मई २०२४
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(जब भी भगवान पुरुषोत्तम की विशेष कृपा होगी तभी आगे लिख पाऊँगा। कुछ भी समझने और उसे लिखने के लिए धैर्य, समय और भगवान की कृपा चाहिए।)
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