द्वन्द्वमोह से निर्मुक्त और दृढ़व्रती व्यक्ति ही परमात्मा को उपलब्ध हो सकता है
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जैसी सृष्टि हम चाहते हैं, वैसी ही सृष्टि निर्मित हो, इसके लिए हमें आध्यात्मिक साधना करनी होगी, अन्य कोई मार्ग नहीं है। सिर्फ वही सोचें जो हमारी चेतना का उत्थान कर हमें सत्य का बोध कराने में सहायक हो। हमारे हर विचार के पीछे परमात्मा की उपस्थिति हो। भोगों की कामना से हमारा ज्ञान अपहृत हो जाता है। यह बात स्वयं भगवान श्रीकृष्ण गीता के सातवें अध्याय "ज्ञानविज्ञान योग" में कह रहे हैं। हमारी कामनाएँ ही हमारी सबसे बड़ी शत्रु हैं। कुछ प्राप्त करने के स्थान पर पूर्ण समर्पण की भावना होनी चाहिये। द्वन्द्वमोह से निर्मुक्त और दृढ़व्रती पुरुष ही परमात्मा को उपलब्ध हो सकता है।
"बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः॥७:१९॥" (श्रीमद्भगवद्गीता)
अर्थात् -- बहुत जन्मों के अन्त में (किसी एक जन्म विशेष में) ज्ञान को प्राप्त होकर कि 'यह सब वासुदेव है' ज्ञानी भक्त मुझे प्राप्त होता है; ऐसा महात्मा अति दुर्लभ है॥
After many lives, at last the wise man realises Me as I am. A man so enlightened that he sees God everywhere is very difficult to find.
अपने भाष्य में आचार्य शंकर ने ऐसे व्यक्ति को ही "महात्मा" की संज्ञा दी है। सर्वत्र परमात्मा का ही दर्शन करते हुए हम उन्हें पूर्णतः समर्पित हों। इससे अधिक बड़ा अन्य कोई ज्ञान नहीं है। ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
८ मई २०२५
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