"स्थितप्रज्ञ होकर हम ब्राह्मीस्थिति को प्राप्त हों" -- यही हमारी आध्यात्मिक साधना है, यही सन्यास है, यही मोक्ष है, यही ब्रह्मनिर्वाण है, और यही परमात्मा की प्राप्ति है ---
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मैं जो लिख रहा हूँ, वह कोई प्रवचन या उपदेश नहीं, मेरी आंतरिक अनुभूतियाँ हैं, जिन्हें व्यक्त करने की मुझे पूर्ण आंतरिक अनुमति और स्वतन्त्रता है।
आत्मा शाश्वत् और अमर है। जिसने किसी भी शरीर में जन्म लिया है, उस शरीर की मृत्यु भी निश्चित है; और मृत्यु के पश्चात् उसका किसी दूसरे शरीर में पुनर्जन्म भी निश्चित है। विभिन्न देहों में हमारा पुनर्जन्म और जीवन का सारा घटनाक्रम --हमारे कर्मफलों के अनुसार होता है। यह शाश्वत सत्य -- सनातन धर्म है, जिससे सारी सृष्टि संचालित हो रही है।
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मनुष्य जीवन पाकर हम बहुत भाग्यशाली हैं, क्योंकि इसी शरीर में हम परमात्मा को उपलब्ध हो सकते हैं। जन्म और मृत्यु के महाभय की चेतना से मुक्त होने के लिए भगवान ने ब्राह्मी-स्थिति की बात की है ---
"विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः।
निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति॥२:७१॥"
"एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति।
स्थित्वाऽस्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति॥२:७२॥"
अर्थात् -- जो मनुष्य समस्त भौतिक कामनाओं का परित्याग कर इच्छा-रहित, ममता-रहित और अहंकार-रहित रहता है, वही परम-शांति को प्राप्त कर सकता है।
हे पार्थ! यह आध्यात्मिक जीवन (ब्रह्म की प्राप्ति) का पथ है, जिसे प्राप्त करके मनुष्य कभी मोहित नही होता है, यदि कोई जीवन के अन्तिम समय में भी इस पथ पर स्थित हो जाता है तब भी वह भगवद्प्राप्ति करता है।
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मुझे यह अनुभूत होता है कि यह ब्राह्मी स्थिति केवल उन्हीं को प्राप्त होती है जो स्थितप्रज्ञ हैं, यानि जिनकी प्रज्ञा -- ब्रह्म में स्थिर है। हमारी प्रज्ञा ब्रह्म में स्थिर/स्थित हो, यही हमारी आध्यात्मिक साधना हो।
हम स्थितप्रज्ञ कैसे हों? स्थितप्रज्ञता के लिए हम क्या करें? इसका स्वाध्याय और साधना आप स्वयं करें। इसके लिए क्या क्या आवश्यक है? इसका अनुसंधान भी आप स्वयं करें। जिसको प्यास लगी है वही कुएँ तक जाएगा और वही जलपान करेगा। आपको प्यास नहीं लगी है, यानि अभीप्सा नहीं है तो आध्यात्म आपके लिए नहीं है। ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
७ नवंबर २०२४
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