Friday, 16 May 2025

"पुरुषोत्तम योग" के आरंभिक ६ श्लोकों में योग-साधना के सारे सूत्र समाहित हैं ---

वैसे तो पूरी गीता ही योग शास्त्र है, लेकिन उसके १५ वें अध्याय "पुरुषोत्तम योग" के आरंभिक ६ श्लोकों में योग-साधना के सारे सूत्र समाहित हैं। लेकिन वे भगवान की कृपा से ही समझ में आ सकते हैं। उन्हें बौद्धिक रूप से समझने मात्र का ही नहीं, निज जीवन में अवतरित कीजिए।

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मनुष्य का स्वभाव होता है कि वह सबसे पहिले दूसरों की कमी देखता है। मेरे में लाख कमियाँ होंगी, लेकिन उनसे किसी अन्य की कोई हानि नहीं होगी, अतः मेरी कमियों की चिंता छोड़ दें, उनके लिए मैं स्वयं जिम्मेदार हूँ, कोई अन्य नहीं। अपनी स्वयं की कमियों को दूर करने का प्रयास करें। मेरे में लाखों कमियाँ हैं, लेकिन मैं हर समय ईश्वर की चेतना में रहता हूँ, यही मेरा एकमात्र गुण है। मैं स्वयं को सदा ईश्वर के सन्मुख पाता हूँ। मेरी बुराई करने से मेरी बुराइयों के अतिरिक्त किसी को कुछ भी नहीं मिलेगा। यदि देखना है तो ईश्वर में स्वयं को देखो।
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भगवान कहते हैं --
"ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्॥१५:१॥"
"अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः।
अधश्च मूलान्यनुसन्ततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके॥१५:२॥"
"न रूपमस्येह तथोपलभ्यते नान्तो न चादिर्न च संप्रतिष्ठा।
अश्वत्थमेनं सुविरूढमूल मसङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा॥१५:३॥"
"ततः पदं तत्परिमार्गितव्य यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः।
तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी॥१५:४॥"
"निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः।
द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञैर्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्॥१५:५॥"
"न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम॥१५:६॥"
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अपने भाष्य में आचार्य शंकर कहते हैं कि "संसार से विरक्त हुए पुरुष को ही भगवान का तत्त्व जानने का अधिकार है, अन्य को नहीं"। उनका युग दूसरा था। उस समय समाज में इतने अभाव और कष्ट नहीं थे, जितने अब हैं। इसलिए परमात्मा की कृपा भी इस युग में शीघ्र ही हो जाती है।
१६ मई २०२३

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