Friday, 16 May 2025

हमें सुख और शांति कैसे मिले? ---

यह हमारी शाश्वत और सनातन जिज्ञासा है कि जीवन में हमें सुख और शांति कैसे मिले। हम सब सुख और शांति को प्राप्त करना चाहते हैं। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने इस विषय को गीता के दूसरे अध्याय के अंतिम १२ श्लोकों में बहुत बहुत अच्छी तरह से समझाया है। भगवान श्रीकृष्ण के अनुसार जीवन में सुख और शांति उसी को प्राप्त होती है जिसकी प्रज्ञा स्थिर है। स्थितप्रज्ञ व्यक्ति ही सुख और शांति को प्राप्त कर सकता है, और स्थितप्रज्ञ व्यक्ति ही परमात्मा को उपलब्ध हो सकता है।
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हम शाश्वत आत्मा हैं, जिसका निरंतर पुनर्जन्म अपने कर्मफलों को भोगने के लिए होता रहता है। हमारे विचार ही हमारे कर्म हैं। जैसा हम सोचते हैं वैसे ही हो जाते हैं। यह सनातन धर्म, और सनातन सत्य है।
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पुनर्जन्म का मुख्य कारण राग-द्वेष है। राग-द्वेष और अहंकार से मुक्ति को वीतरागता कहते हैं। वीतराग व्यक्ति ही स्थितप्रज्ञ हो सकता है। जिसकी प्रज्ञा स्थिर है वह स्थितप्रज्ञ और जीवनमुक्त है। गीता में भगवान कहते हैं --
"तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः।
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥२:६१॥"
अर्थात् -- उन सब इन्द्रियों को संयमित कर युक्त और मत्पर होवे। जिस पुरुष की इन्द्रियां वश में होती हैं? उसकी प्रज्ञा प्रतिष्ठित होती है॥
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भगवान आगे कहते हैं कि --
विषयों का चिन्तन करने वाले पुरुष की उन में आसक्ति हो जाती है। आसक्ति से इच्छा और इच्छा से क्रोध उत्पन्न होता है॥
क्रोध से मोह, और मोह से स्मृति विभ्रम होता है। स्मृति के भ्रमित होने पर बुद्धि का नाश होता है और बुद्धि के नाश होने से वह मनुष्य नष्ट हो जाता है॥
आत्मसंयमी (विधेयात्मा) पुरुष रागद्वेष से रहित अपने वश में की हुई (आत्मवश्यै) इन्द्रियों द्वारा विषयों को भोगता हुआ प्रसन्नता (प्रसाद) प्राप्त करता है॥
प्रसाद के होने पर सम्पूर्ण दुखों का अन्त हो जाता है और प्रसन्नचित्त पुरुष की बुद्धि ही शीघ्र ही स्थिर हो जाती है॥
(संयमरहित) अयुक्त पुरुष को (आत्म) ज्ञान नहीं होता और अयुक्त को भावना और ध्यान की क्षमता नहीं होती भावना रहित पुरुष को शान्ति नहीं मिलती अशान्त पुरुष को सुख कहाँ?
जल में वायु जैसे नाव को हर लेता है, वैसे ही विषयों में विचरती हुई इन्द्रियों के बीच में जिस इन्द्रिय का अनुकरण मन करता है, वह एक ही इन्द्रिय इसकी प्रज्ञा को हर लेती है॥
इसलिये हे महाबाहो ! जिस मनुष्य की इन्द्रियाँ इन्द्रियों के विषयों से सर्वदा निगृहीत (वशमें की हुई) हैं, उसकी बुद्धि स्थिर है॥
सम्पूर्ण प्राणियों की जो रात (परमात्मासे विमुखता) है, उसमें संयमी मनुष्य जागता है, और जिसमें सब प्राणी जागते हैं (भोग और संग्रहमें लगे रहते हैं), वह तत्त्वको जानने वाले मुनि की दृष्टिमें रात है॥
जैसे सम्पूर्ण नदियोंका जल चारों ओर से जल द्वारा परिपूर्ण समुद्र में आकर मिलता है, पर समुद्र अपनी मर्यादा में अचल प्रतिष्ठित रहता है ऐसे ही सम्पूर्ण भोग-पदार्थ जिस संयमी मनुष्य को विकार उत्पन्न किये बिना ही प्राप्त होते हैं, वही मनुष्य परमशान्ति को प्राप्त होता है, भोगों की कामना वाला नहीं॥
जो मनुष्य सम्पूर्ण कामनाओं का त्याग करके स्पृहारहित, ममतारहित और अहंकाररहित होकर आचरण करता है, वह शान्ति को प्राप्त होता है।
हे पार्थ यह ब्राह्मी स्थिति है। इसे प्राप्त कर पुरुष मोहित नहीं होता। अन्तकाल में भी इस निष्ठा में स्थित होकर ब्रह्मनिर्वाण (ब्रह्म के साथ एकत्व) को प्राप्त होता है॥
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अब प्रश्न उठता है कि आगे क्या किया जाये? इसका पूरा मार्गदर्शन गीता में है। सिर्फ उसके पाठ मात्र से कुछ नहीं होता, उसका आचरण करना होगा। भगवान ने हमें पूरा मार्गदर्शन दिया है। फिर भी यदि कोई कमी है तो वह हमारी है, भगवान की नहीं।
ॐ तत्सत् !!
१७ मई २०२३

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