परमात्मा के ध्यान में बहुत अधिक गहराई है। जो ध्वनि/शब्द उन्हें निज चेतना में व्यक्त करता है, वह हमें एक अलौकिक चेतना में आत्मसात कर लेता है। सम्पूर्ण सृष्टि का निर्माण ही उसी से हुआ है।
मनुष्य जीवन की उच्चतम उपलब्धि "परमात्मा" को उपलब्ध होने के पश्चात् और पाने को कुछ भी नहीं बचता ---
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हमें निरंतर अनन्य भाव से परमात्मा का चिंतन-मनन, निदिध्यासन-ध्यान आदि करते रहना चाहिये। प्रकृति का नियम है कि समृद्धि के चिंतन से समृद्धि आती है, प्रचूरता के चिंतन से प्रचूरता आती है, अभावों के चिंतन से अभाव आते हैं, दरिद्रता के चिंतन से दरिद्रता आती है, दु:खों के चिंतन से दु:ख आते हैं, पाप के चिंतन से पाप आते हैं, और हम वैसे ही बन जाते हैं जैसा हम सोचते हैं। जिस भी भाव का चिंतन हम निरंतर करते हैं, प्रकृति वैसा ही रूप लेकर हमारे पास आ जाती है, और हमारे चारों ओर की सृष्टि वैसी ही बन जाती है। परमात्मा के निरंतर चिंतन से हम स्वयं ही परमात्मा के साथ एक हो जाते हैं।
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हमारे विचार और भाव ही हमारे "कर्म" हैं, जिनका फल भोगने को हम बाध्य हैं। पूरी सृष्टि में जो कुछ भी हो रहा है, वह हम सब मनुष्यों के सामुहिक विचारों का ही घनीभूत रूप है। चारों ओर की सृष्टि हमारी ही रचना है। हम सर्वव्यापी शाश्वत आत्मा हैं, यह देह नहीं। परमात्मा से पृथकता का बोध मिथ्या है।
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जब भी हम किसी से मिलते हैं या कोई हम से मिलता है तो आपस में एक दूसरे पर प्रभाव पड़े बिना नहीं रहता। किसी के विचारों का प्रभाव अधिक शक्तिशाली होता है किसी का कम। इसीलिये साधक एकांत में रहना अधिक पसंद करते हैं। ईश्वर से संपर्क करने के लिए एकांतवास की कीमत चुकानी पडती है।
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संसार की जटिलताओं में रहते हुए ईश्वर पर ध्यान करना अति-मानवीय कार्य है, जिसे हर कोई नहीं कर सकता। जो ईश्वर को प्राप्त करना चाहते हैं, उन्हें अपने विचारों पर नियंत्रण रखना पड़ता है। इसके लिए अनुकूल वातावरण चाहिए। तपस्वी संत महात्मा इसीलिए एकांत में रहते है। भगवान उनकी व्यवस्था कर देते हैं, क्योंकि वे निरंतर भगवान का ही चिंतन करते है।
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अपने ह्रदय और मन को शांत रखो। जहाँ तक हमारी कल्पना जाती है, वह हम स्वयं हैं। हर समय सर्वव्यापी आत्मा का ध्यान करो, अनात्मा का नहीं। इसे समझने के लिए किन्हीं ब्रह्मनिष्ठ, श्रौत्रीय, सिद्ध महापुरुष के मार्गदर्शन में साधना करनी पड़ेगी।
ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२७ मई २०२३
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