निम्न पंक्तियाँ मैं अपने अनुभव से लिख रहा हूँ| यह आवश्यक नहीं है कि ये सत्य ही हों| मेरा आंकलन भी गलत हो सकता है|
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सनातन हिन्दू धर्म में पुरुषार्थ (धर्म, अर्थ, काम, और मोक्ष) को मानव जीवन का उद्देश्य या लक्ष्य बताया गया है| माता-पिता, आचार्यों और शास्त्रों के उपदेशानुसार आचरण भी पुरुषार्थ है|
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लेकिन इस जीवन का मेरा अनुभव यह कहता है कि जीवन में हमारे साथ वही होता है जो हमारी नियति में है| हमारे पास कोई विकल्प नहीं होता| हमारी महत्वाकांक्षायें कभी पूरी नहीं होतीं| होता वही है जैसी परिस्थितियाँ हमारे चारों ओर होती हैं, और जैसी हमारी समझ और मस्तिष्क यानि दिमाग की क्षमता होती है| जितनी अधिक आकांक्षाएँ हमारे में होती हैं, उतनी ही अधिक हमारे जीवन में कुंठायें होती हैं| पुरुषार्थ भी तभी होता है जब वह हमारे भाग्य यानि नियति में लिखा हो, अन्यथा नहीं|
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हमारे पास एक ही स्वतंत्र चयन (free choice) है कि हम परमात्मा को प्रेम करें या नहीं| अन्य सब तरह के पुरुषार्थ की बात एक आदर्श लुभावनी मीठी-मीठी अव्यवहारिक कल्पना मात्र ही है| हम अपने कर्मफलों को भोगने के लिए ही आते हैं| बहुत ही कम विकल्प/अवसर, और उनका उपयोग करने की क्षमता हमें जीवन में मिलती हैं| होता वही है जैसी सृष्टिकर्ता की इच्छा होती है|
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आप सब महान आत्माओं को नमन !! आप के विचार आमंत्रित हैं|
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२५ जुलाई २०२०
हे प्रभु, तुम तो सिर्फ तमाशा देख रहे हो, और क्या कर रहे हो? सारा कार्य तो तुम्हारी यह प्रकृति और उसके गुण कर रहे हैं| मैं कहीं भी कर्ता नहीं हूँ, कर्ता तो तुम स्वयं हो| मुझे बेकार में ही यहाँ फँसा रखा है| मुझे तो तुम्हारे सिवाय और कुछ भी नहीं चाहिए| मैं न तो कर्ता हूँ, और न ही भोक्ता| अतः इस झंझट से तुरंत मुक्त करो|
ReplyDeleteमैं (जो भी हूँ) अपनी सारी विफलताओं, निराशाओं, दुःखों, पीड़ाओं और समस्याओं को बापस तुम्हें ही सौंप रहा हूँ| इन्हें सहन करने की क्षमता मुझ में नहीं है| तुम ही समस्याओं के रूप में आए, और तुम ही समाधान हो| अब और विलंब मत करो| तुम्हें पूर्ण हृदय से नमन !! अब जल्दी-जल्दी शीघ्र आओ|