Monday, 26 July 2021

क्रियायोग और भक्ति ---

क्रियायोग और भक्ति --- अब ये जीवन के अविभाज्य अंग बन गए हैं। इनके लिए अब अलग से प्रयास की आवश्यकता नहीं रही है। जब तक सुषुम्ना की ब्रह्मनाड़ी में प्राण प्रवाहित हो रहे हैं, क्रियायोग की साधना मेरे माध्यम से होती रहेगी। जब तक ये साँसें चल रही है, तब तक भगवान की भक्ति भी स्वतः ही होती रहेगी। इस का पुण्य-फल भगवान को समर्पित है। मैं -- भगवान का एक उपकरण और एक निमित्त मात्र हूँ, उस से अधिक कुछ भी नहीं।

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सुषुम्ना नाड़ी -- तीन नाड़ियों का समन्वय है। सुषुम्ना के भीतर वज्रा नाड़ी है। उस वज्रा नाड़ी के भीतर चित्रा नाड़ी है, चित्रा के बीच में शुद्ध ज्ञानरूपी ब्रह्मनाड़ी है जो मूलाधार स्थित स्वयंभू शिव-लिंग के मुख से निकल कर सहस्त्रार दल पर्यन्त चली गयी है। तंत्रागमों के अनुसार सुषुम्ना नाड़ी में सात पद्म अधोमुखी होकर गुंथे हुए हैं। इन पद्मो को जागृत कर के उर्ध्वमुखी करने के लिए सुषुम्ना में प्राणोत्थान की आवश्यकता है, जो कि अंतर्मुखी विशिष्ट प्राणक्रिया (क्रियायोग) के द्वारा संभव है।
यह एक गुरुमुखी विद्या है जो गुरु द्वारा प्रत्यक्ष रूप से शिष्य को पात्रतानुसार दी जाती है। इस विषय का ज्ञान गुरुकृपा से ही होता है। इस का और अधिक वर्णन करना मेरे लिए संभव नहीं है। भगवान ने इसे समझने की शक्ति तो दी है, लेकिन इतनी शक्ति नहीं दी है कि किसी अन्य को समझा सकूँ। इसलिए इस विषय पर कोई प्रश्न मुझ से न करें। योगिराज श्रीश्री श्यामाचरण लाहिड़ी महाशय और परमहंस योगानन्द ने इस विषय को अपने साहित्य में बहुत अच्छी तरह से समझाया है।
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"ॐ सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु । सह वीर्यं करवावहै । तेजस्वि नावधीतमस्तु मा विद्विषावहै । ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥"
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३१ मई २०२१

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