मेरी कोई भी कामना, आकांक्षा, संकल्प या प्रतिज्ञा -- अधर्म और व्यभिचार है, क्योंकि मैं निमित्त मात्र हूँ, कर्ता नहीं| भगवान की सर्वव्यापकता ही हमारा आत्मस्वरूप है| हमारे निज जीवन में वे निरंतर व्यक्त हों| एक जल की बूंद महासागर में मिल कर स्वयं महासागर बन जाती है, वैसे ही एक जीवात्मा, परमात्मा में समर्पित होकर स्वयं परमात्मा बन जाती है| यह संसार परमात्मा का है, हमारा नहीं| उन्हें हमारी सलाह की आवश्यकता नहीं है, अपनी सृष्टि को चलाने में वे सक्षम हैं| अपनी सृष्टि के संचालन और भरण-पोषण के लिए वे स्वयं जिम्मेदार हैं, हम नहीं| हमारा कार्य उनके प्रति भक्ति और समर्पण है| जब हम निमित्त मात्र यानि उनके एक उपकरण मात्र हैं तब हमारा कर्ताभाव, हमारे संकल्प-विकल्प, आदि सब हमारा अहंकार है|
No comments:
Post a Comment