"ईश्वर यानि परमात्मा की प्राप्ति" एक गलत वाक्य है, और ईश्वर को प्राप्त करने की बात ही गलत है, क्योंकि ईश्वर तो हमें सदा से ही प्राप्त है। हम कोई मंगते/भिखारी नहीं, ईश्वर के अमृतपुत्र हैं। जहां भी कोई मांग होती है, वह व्यापार ही होता है। परमात्मा से कुछ मांगना, उनके साथ व्यापार करना है। हमारा उद्देश्य है -- ईश्वर यानि परमात्मा को समर्पित होना, न कि उन के साथ व्यापार करना।
.
हम परमात्मा को दे ही क्या सकते हैं? --- परमात्मा को देने के लिए हमारे पास इतना अधिक सामान है कि उसे देने के लिए अनेक जन्म चाहियें। सबसे बड़ा तो हमारा मन है, फिर बुद्धि, फिर चित्त, और फिर अहंकार। परमात्मा को स्वयं का समर्पण ही हमारी आध्यात्मिक साधना का एकमात्र उद्देश्य है। परमात्मा को अपने राग-द्वेष का समर्पण करके ही तो हम वीतराग महात्मा हो सकते हैं, जो हमारी आध्यात्मिक साधना का प्रथम उद्देश्य है। परमात्मा में अपनी प्रज्ञा को स्थित कर के ही हम स्थितप्रज्ञ हो सकते हैं। परमात्मा में अपने अहम् का समर्पण कर के ही हम ब्रह्मविद हो सकते हैं। अतः परमात्मा से कुछ पाने की न सोचें। यह सबसे बड़ा भटकाव है।
.
भगवान ने जो कुछ भी दिया है वह हमें उन्हें बापस तो लौटाना ही होगा, अन्यथा प्रकृति बापस हमसे सब कुछ छीन ही लेगी| प्रकृति हमसे छीने उस से पूर्व ही बापस लौटा दें तो अधिक अच्छा है| स्वार्थपूर्ण अधिकार का भाव एक साधक को त्याग देना चाहिए| सब कुछ परमात्मा का है, हमारा कुछ भी नहीं, और सर्वस्व भी परमात्मा ही है|
ॐ तत्सत् ॥ ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
५ जुलाई २०२५
No comments:
Post a Comment