असत्य का अंधकार दूर हो, अधर्म का नाश हो, धर्म की जय हो। यह राष्ट्र अपने द्वीगुणित परम वैभव के साथ अखंडता के सिंहासन पर बिराजमान हो।
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इस संसार में किस पर विश्वास करूँ, और किस पर न करूँ? कुछ समझ में नहीं आ रहा है। सारी आस्था, श्रद्धा और विश्वास परमात्मा में ही सिमट कर रह गई हैं। वे निकटतम से भी निकट, प्रियतम से भी प्रिय, एकमात्र आश्रयस्थल और मेरी एकमात्र धन-संपत्ति हैं। परमात्मा के अतिरिक्त मेरे पास कुछ भी अन्य नहीं है। इस समय मैं उन्हीं में तैर रहा हूँ, उन्हीं में गोते लगा रहा हूँ, और उन्हीं में लोटपोट कर रहा हूँ। इस भौतिक जन्म से पूर्व वे ही मेरे साथ थे, इस शरीर की भौतिक मृत्यु के पश्चात वे ही मेरे साथ रहेंगे, माता-पिता, भाई-बंधु, शत्रु-मित्र, सगे-संबंधी, सब कुछ वे ही थे। उन परमात्मा का ही प्यार था जो इन सब के माध्यम से मुझे मिला। एकमात्र अस्तित्व उन्हीं का है। उनसे अन्य कुछ भी नहीं है।
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आपके सामने मिठाई रखी है, तो उसको खाने में मजा है, न कि उसकी चर्चा करने में। इसलिए परमात्मा की चर्चा करना व्यर्थ है। वायू के रूप में परमात्मा का ही भक्षण कर रहा हूँ, जल के रूप में उन्हें ही पी रहा हूँ, भोजन के रूप में उन्हीं को खा रहा हूँ, उन्हीं परमात्मा में रह रहा हूँ, और उन्हीं परमात्मा में विचरण कर रहा हूँ। सामने का दृश्य भी परमात्मा है, देखने वाला भी परमात्मा है, और यह दृष्टि भी परमात्मा है। उन के सिवाय कुछ भी अन्य नहीं है। एकमात्र कर्ता वे ही हैं।
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गीता में भगवान कहते हैं --
"यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥६:३०॥"
अर्थात् -- " जो पुरुष मुझे सर्वत्र देखता है और सबको मुझमें देखता है, उसके लिए मैं नष्ट नहीं होता (अर्थात् उसके लिए मैं दूर नहीं होता) और वह मुझसे वियुक्त नहीं होता॥
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ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
६ जुलाई २०२४
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