भगवान श्रीकृष्ण हमारे परम सखा हैं .....
--------------------------------
भगवान की भक्ति में "सखा" शब्द बहुत ही विलक्षण है| यह "सखा" शब्द भगवान श्रीकृष्ण को अति प्रिय है, इसलिए भगवान श्रीकृष्ण हमारे परम सखा हैं| गीता में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को "मे सखा चेती" कहते हैं यानि तूँ मेरा "सखा" है ....
"स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः| भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम्||४:३||"
.
हिन्दी में सखा मित्र को कहते हैं पर तात्विक दृष्टि से इसका अर्थ भिन्न है| "ख" आकाश तत्व को कहते हैं| जहाँ आकाश तत्व में सारी सृष्टि समाहित हो जाती है, वहीं आकाश तत्व शून्य भी है| आकाश के साथ जो है वही सखा है, यानि जिसके साथ होने से यह सारा संसार शून्य हो जाए, और जिस के नहीं होने से भी सारा संसार शून्य हो जाए ..... यह सखा का लक्षण है| श्रुति भगवती बार बार कहती है .....
--------------------------------
भगवान की भक्ति में "सखा" शब्द बहुत ही विलक्षण है| यह "सखा" शब्द भगवान श्रीकृष्ण को अति प्रिय है, इसलिए भगवान श्रीकृष्ण हमारे परम सखा हैं| गीता में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को "मे सखा चेती" कहते हैं यानि तूँ मेरा "सखा" है ....
"स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः| भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम्||४:३||"
.
हिन्दी में सखा मित्र को कहते हैं पर तात्विक दृष्टि से इसका अर्थ भिन्न है| "ख" आकाश तत्व को कहते हैं| जहाँ आकाश तत्व में सारी सृष्टि समाहित हो जाती है, वहीं आकाश तत्व शून्य भी है| आकाश के साथ जो है वही सखा है, यानि जिसके साथ होने से यह सारा संसार शून्य हो जाए, और जिस के नहीं होने से भी सारा संसार शून्य हो जाए ..... यह सखा का लक्षण है| श्रुति भगवती बार बार कहती है .....
"द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते|
तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति||" (मुंडकोपनिषद)
अर्थात एक साथ रहने वाले तथा परस्पर सख्यभाव रखनेवाले दो पक्षी जीवात्मा एवं परमात्मा एक ही वृक्ष शरीर का आश्रय लेकर रहते हैं| उन दोनों में से एक जीवात्मा तो उस वृक्ष के फल .... कर्मफलों का स्वाद ले लेकर खाता है, किंतु दूसरा .... ईश्वर उनका उपभोग न करता हुआ केवल देखता रहता है||
.
चैतन्य महाप्रभु कहते हैं .....
"युगायितं निमेषेण चक्षुषा प्रावृषायितम् |
शून्यायितं जगत् सर्वं गोविन्द-विरहेण मे || (शिक्षाष्टकम्:७)
अर्थात् श्रीकृष्ण के विरह में मेरे लिए एक एक क्षण एक युग के समान है, आँखों में जैसे वर्षा ऋतु आई हुई है और यह विश्व एक शून्य के समान लग रहा है|
"आश्लिष्य वा पादरतां पिनष्टु मा मदर्शनान्मर्महतां करोतु वा|
यथा तथा वा विदधातु लम्पटो मत्प्राणनाथस्तु स एव नापरः||" (शिक्षाष्टकम्:८)
अर्थात् उनके चरणों में प्रीति रखने वाले मुझ सेवक का वे आलिंगन करें या न करें, मुझे अपने दर्शन दें या न दें, मुझे अपना मानें या न मानें, वह चंचल, नटखट श्रीकृष्ण ही मेरे प्राणों के स्वामी हैं, कोई दूसरा नहीं||
.
यह परम सखाभाव है| भगवान वैसे तो सर्वस्व हैं, पर सबसे अधिक प्रिय भाव "सखा" का ही है| वे हम सब के सखा ही हैं, उनके बिना तो जीवन असंभव है|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३ अक्टूबर २०१९
तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति||" (मुंडकोपनिषद)
अर्थात एक साथ रहने वाले तथा परस्पर सख्यभाव रखनेवाले दो पक्षी जीवात्मा एवं परमात्मा एक ही वृक्ष शरीर का आश्रय लेकर रहते हैं| उन दोनों में से एक जीवात्मा तो उस वृक्ष के फल .... कर्मफलों का स्वाद ले लेकर खाता है, किंतु दूसरा .... ईश्वर उनका उपभोग न करता हुआ केवल देखता रहता है||
.
चैतन्य महाप्रभु कहते हैं .....
"युगायितं निमेषेण चक्षुषा प्रावृषायितम् |
शून्यायितं जगत् सर्वं गोविन्द-विरहेण मे || (शिक्षाष्टकम्:७)
अर्थात् श्रीकृष्ण के विरह में मेरे लिए एक एक क्षण एक युग के समान है, आँखों में जैसे वर्षा ऋतु आई हुई है और यह विश्व एक शून्य के समान लग रहा है|
"आश्लिष्य वा पादरतां पिनष्टु मा मदर्शनान्मर्महतां करोतु वा|
यथा तथा वा विदधातु लम्पटो मत्प्राणनाथस्तु स एव नापरः||" (शिक्षाष्टकम्:८)
अर्थात् उनके चरणों में प्रीति रखने वाले मुझ सेवक का वे आलिंगन करें या न करें, मुझे अपने दर्शन दें या न दें, मुझे अपना मानें या न मानें, वह चंचल, नटखट श्रीकृष्ण ही मेरे प्राणों के स्वामी हैं, कोई दूसरा नहीं||
.
यह परम सखाभाव है| भगवान वैसे तो सर्वस्व हैं, पर सबसे अधिक प्रिय भाव "सखा" का ही है| वे हम सब के सखा ही हैं, उनके बिना तो जीवन असंभव है|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३ अक्टूबर २०१९
मैं अकेला हूँ| मेरे सिवाय अन्य कोई नहीं है| मेरे प्रभु भगवान् वासुदेव से परे अन्य कोई भी नहीं है| मैं उन्हीं की अभिव्यक्ति हूँ, जो वे हैं वही मैं हूँ| वे ही मेरी परमगति हैं| वे ही मेरे प्राण हैं, वे ही मेरे जीवन हैं| यह देह, मन, बुद्धि और चित्त सब उन्हीं का है| उनसे पृथक मेरा कुछ भी अस्तित्व नहीं है| उन से परे का कोई भी चिंतन या चाह एक व्यभिचार है|
ReplyDelete"मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी| विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि||13:11||"
अर्थात अनन्ययोग के द्वारा मुझमें अव्यभिचारिणी भक्ति, एकान्त स्थान में रहने का स्वभाव और (असंस्कृत) जनों के समुदाय में अरुचि||
हरिः ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
१५ अक्तूबर २०१९