Saturday, 19 October 2019

हम ध्यान कहाँ किस बिन्दु से आरंभ करें ? ....

हम ध्यान कहाँ किस बिन्दु से आरंभ करें ? ....
.
देवीभागवत के अनुसार हमें शिखास्थान से ऊपर सहस्त्रार में, शिव संहिता के अनुसार ब्रह्मरंध्र में, गीता में भगवान श्रीकृष्ण के अनुसार भ्रूमध्य में, और तंत्रागमों के अनुसार उत्तरा-सुषुम्ना (आज्ञाचक्र और सहस्त्रार के मध्य) में ध्यान करना चाहिए|
.
मेरा अनुभव कहता है कि हमारा आध्यात्मिक हृदय आज्ञाचक्र है जो भ्रूमध्य के बिल्कुल सामने पीछे की ओर खोपड़ी में है, जहाँ मेरूशीर्ष (Medulla Oblongata) है| जीवात्मा का निवास भी यहीं है| भ्रूमध्य में ध्यान करते करते ध्यान स्वयमेव ही सहस्त्रार में ब्रह्मरंध्र में चला जाता है| सहस्त्रार ही गुरु महाराज के चरण कमल हैं| सहस्त्रार में स्थिति ही श्रीगुरुचरणों में आश्रय है| सहस्त्रार में स्वतः ही ब्रह्मरंध्र में ध्यान होने लगता है| सहस्त्रार में ब्रह्मरंध्र में ध्यान करते करते चेतना विस्तृत होकर कई बार शरीर से परे अनंत में चली जाती है| वहाँ होने वाली अनुभूतियों का वर्णन सार्वजनिक रूप से करने का निषेध है| इसकी चर्चा सिर्फ गुरु परंपरा में ही की जाती है| गहन आध्यात्मिक साधना भी गुरु परंपरा में ही होनी चाहिए|
.
भगवान श्रीकृष्ण द्वारा गीता में बताई हुई विधि से ही शरणागत होकर ध्यान साधना का आरंभ करना चाहिए| यह निरापद है| सब कुछ उन्हीं को समर्पित कर दें| सारे फल और कर्ताभाव भी उन्हें ही समर्पित कर दें| फिर जो करना है, वे भगवान श्रीकृष्ण ही करेंगे| हमारी उपस्थिति बस इतनी है जितनी किसी यज्ञ में एक यजमान की होती है, उससे अधिक नहीं|
.
ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ नमः शिवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
७ अक्टूबर २०१९

1 comment:

  1. श्रीगुरुचरणों का गहरा ध्यान ही मेरी पूजा और आराधना है| सहस्त्रार में ज्योतिर्मय-ब्रह्म व नाद के रूप में वे सदा विराजमान हैं|
    दीपक पहले स्वयं जलकर औरों को प्रकाश देता है, अपने अहंकार व राग-द्वेष को जलाकर ही मैं ज्योतिर्मय हो सकता हूँ| सामान्य मानवीय चेतना मेरी सबसे बड़ी बाधा है| मैं दीन, हीन व अकिंचन यह देह नहीं, परमात्मा का निज रूप हूँ| मैं और मेरे प्रियतम एक हैं|
    किस को दोष या श्रेय दूँ? कुछ बचा ही नहीं है. सब कुछ तो जल गया है| स्वयं भी स्वयं नहीं रहा हूँ| प्रेम का आरम्भ द्वैत से होता है, पर इसकी परिणिति अद्वैत में हो जाती है, जब हम स्वयं प्रेममय हो प्रेमास्पद के साथ एक हो जाते हैं| हरिः ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
    कृपा शंकर
    १५ अक्तूबर २०१९

    ReplyDelete