भ्रामरी गुफा, आवरण, विक्षेप और कूटस्थ-चैतन्य .....
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कई प्रतीकात्मक शब्द हैं जैसे "भ्रामरी गुफा", "आवरण", "विक्षेप", "कूटस्थ-चैतन्य" आदि आदि जिनका अर्थ साधक तो समझ सकते हैं, पर कोई सामान्य व्यक्ति नहीं| कई तथ्यों को समझाने के लिए प्रतीकात्मक शब्दों का प्रयोग करना पड़ता है अन्यथा उन्हें समझाना असंभव है| ऐसे ही ये शब्द भी हैं| महाभारत में यक्ष-युधिष्ठिर संवाद में भी "धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायाम्", गुहा यानि गुफा शब्द का प्रयोग हुआ है, जिसमें धर्म के तत्व निहित हैं| एक बहुत महान संत के एक लेख में पढ़ा था कि सत्य को जानने के लिए भ्रामरी गुफा में प्रवेश करना होगा जिसके बाहर "आवरण" और "विक्षेप" नाम की दो राक्षसियाँ बैठी हैं, जिन्हें पराजित करना असंभव है, पर कैसे भी ईश्वर की कृपा से इनसे बचकर भीतर जाना है|
इस विषय पर चार वर्ष पूर्व एक विस्तृत लेख लिखा था जिसमें अनेक लोगों ने लेख का स्त्रोत पूछा तो मेरा उत्तर था कि मेरा एकमात्र स्त्रोत गुरुकृपा से प्राप्त निज अनुभव हैं| जिस विषय पर मेरे माध्यम से कुछ लिखा जाता है, उन सब का एकमात्र स्त्रोत है ... "गुरुकृपा", जिसके अतिरिक्त मेरे पास अन्य कुछ भी नहीं है| कुछ लोग शिकायत करते हैं कि मेरी भाषा बड़ी कठिन है| पर मैं जो कुछ भी लिखता हूँ उसे व्यक्त करने के लिए इस से अधिक सरल भाषा हो ही नहीं सकती|
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जो लोग नियमित ध्यान साधना करते हैं उन्हें जब गहरे ध्यान में कूटस्थ ज्योतिर्मय ब्रह्म का आभास होने लगता है तब आरम्भ में ज्योतिर्मय किरणों से घिरा एक काला बिंदु दिखाई देता है, यही भ्रामरी गुफा है| यह अमृतमय मधु से भरी होती है| इसको पार करने के पश्चात् ही एक स्वर्णिम और फिर एक नीली प्रकाशमय सुरंग को भी पार करने पर साधक को श्वेत पञ्चकोणीय नक्षत्र के दर्शन होते हैं| यह पञ्चकोणीय नक्षत्र पञ्चमुखी महादेव का प्रतीक है| जब इस ज्योति पर साधक ध्यान करता है तब कई बार वह ज्योति लुप्त हो जाती है, यह 'आवरण' की मायावी शक्ति है जो एक बहुत बड़ी बाधा है| इस ज्योति पर ध्यान करते समय 'विक्षेप' की मायावी शक्ति ध्यान को छितरा देती है| इन दोनों मायावी शक्तियों पर विजय पाना साधक के लिए एक बहुत बड़ी चुनौती है|
ब्रह्मचर्य, सात्विक भोजन, सतत साधना और गुरुकृपा से एक आंतरिक शक्ति उत्पन्न होती है जो आवरण और विक्षेप की शक्तियों को कमजोर बना कर साधक को इस भ्रामरी गुफा से पार करा देती है| आवरण और विक्षेप का प्रभाव समाप्त होते ही साधक को धर्मतत्व का ज्ञान होने लगता है| यहाँ आकर कर्ताभाव समाप्त हो जाता है और साधक धीरे धीरे परमात्मा की ओर अग्रसर होने लगता है| यह ज्ञान भगवान की परम कृपा से किन्हीं सद्गुरु के माध्यम से ही होता है|
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शिवनेत्र होकर (बिना तनाव के दोनों नेत्रों के गोलकों को नासामूल के समीप लाकर भ्रूमध्य में दृष्टी स्थिर कर, खेचरी मुद्रा में संभव हो तो ठीक है अन्यथा जीभ को ऊपर पीछे की ओर मोड़कर) प्रणव यानि ओंकार की ध्वनि को सुनते हुए उसी में लिपटी हुई सर्वव्यापी ज्योतिर्मय अंतर्रात्मा का चिंतन करने की साधना नित्य नियमित यथासंभव अधिकाधिक करनी चाहिए| समय आने पर हरिकृपा से विद्युत् की चमक के समान देदीप्यमान ब्रह्मज्योति ध्यान में प्रकट होती है| उस ब्रह्मज्योति का प्रत्यक्ष साक्षात्कार करने के बाद उसी की चेतना में निरंतर रहने की साधना करें| यह ब्रह्मज्योति अविनाशी है, इसका कभी नाश नहीं होता| लघुत्तम जीव से लेकर ब्रह्मा तक का नाश हो सकता है पर इस ज्योतिर्मय ब्रह्म का कभी नाश नहीं होता| यही कूटस्थ है, और इसकी चेतना ही कूटस्थ चैतन्य है| इसकी साधना के लिए कुसंग का त्याग, यम-नियमों का पालन और सद्गुरु का मार्गदर्शन अनिवार्य है|
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हम सब को परमात्मा की पराभक्ति प्राप्त हो और हम सब उसके प्रेम में निरंतर मग्न रहें| परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति आप सब को नमन !
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शिवमस्तु ! ॐ नमः शिवाय ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१० अगस्त २०१९
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कई प्रतीकात्मक शब्द हैं जैसे "भ्रामरी गुफा", "आवरण", "विक्षेप", "कूटस्थ-चैतन्य" आदि आदि जिनका अर्थ साधक तो समझ सकते हैं, पर कोई सामान्य व्यक्ति नहीं| कई तथ्यों को समझाने के लिए प्रतीकात्मक शब्दों का प्रयोग करना पड़ता है अन्यथा उन्हें समझाना असंभव है| ऐसे ही ये शब्द भी हैं| महाभारत में यक्ष-युधिष्ठिर संवाद में भी "धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायाम्", गुहा यानि गुफा शब्द का प्रयोग हुआ है, जिसमें धर्म के तत्व निहित हैं| एक बहुत महान संत के एक लेख में पढ़ा था कि सत्य को जानने के लिए भ्रामरी गुफा में प्रवेश करना होगा जिसके बाहर "आवरण" और "विक्षेप" नाम की दो राक्षसियाँ बैठी हैं, जिन्हें पराजित करना असंभव है, पर कैसे भी ईश्वर की कृपा से इनसे बचकर भीतर जाना है|
इस विषय पर चार वर्ष पूर्व एक विस्तृत लेख लिखा था जिसमें अनेक लोगों ने लेख का स्त्रोत पूछा तो मेरा उत्तर था कि मेरा एकमात्र स्त्रोत गुरुकृपा से प्राप्त निज अनुभव हैं| जिस विषय पर मेरे माध्यम से कुछ लिखा जाता है, उन सब का एकमात्र स्त्रोत है ... "गुरुकृपा", जिसके अतिरिक्त मेरे पास अन्य कुछ भी नहीं है| कुछ लोग शिकायत करते हैं कि मेरी भाषा बड़ी कठिन है| पर मैं जो कुछ भी लिखता हूँ उसे व्यक्त करने के लिए इस से अधिक सरल भाषा हो ही नहीं सकती|
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जो लोग नियमित ध्यान साधना करते हैं उन्हें जब गहरे ध्यान में कूटस्थ ज्योतिर्मय ब्रह्म का आभास होने लगता है तब आरम्भ में ज्योतिर्मय किरणों से घिरा एक काला बिंदु दिखाई देता है, यही भ्रामरी गुफा है| यह अमृतमय मधु से भरी होती है| इसको पार करने के पश्चात् ही एक स्वर्णिम और फिर एक नीली प्रकाशमय सुरंग को भी पार करने पर साधक को श्वेत पञ्चकोणीय नक्षत्र के दर्शन होते हैं| यह पञ्चकोणीय नक्षत्र पञ्चमुखी महादेव का प्रतीक है| जब इस ज्योति पर साधक ध्यान करता है तब कई बार वह ज्योति लुप्त हो जाती है, यह 'आवरण' की मायावी शक्ति है जो एक बहुत बड़ी बाधा है| इस ज्योति पर ध्यान करते समय 'विक्षेप' की मायावी शक्ति ध्यान को छितरा देती है| इन दोनों मायावी शक्तियों पर विजय पाना साधक के लिए एक बहुत बड़ी चुनौती है|
ब्रह्मचर्य, सात्विक भोजन, सतत साधना और गुरुकृपा से एक आंतरिक शक्ति उत्पन्न होती है जो आवरण और विक्षेप की शक्तियों को कमजोर बना कर साधक को इस भ्रामरी गुफा से पार करा देती है| आवरण और विक्षेप का प्रभाव समाप्त होते ही साधक को धर्मतत्व का ज्ञान होने लगता है| यहाँ आकर कर्ताभाव समाप्त हो जाता है और साधक धीरे धीरे परमात्मा की ओर अग्रसर होने लगता है| यह ज्ञान भगवान की परम कृपा से किन्हीं सद्गुरु के माध्यम से ही होता है|
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शिवनेत्र होकर (बिना तनाव के दोनों नेत्रों के गोलकों को नासामूल के समीप लाकर भ्रूमध्य में दृष्टी स्थिर कर, खेचरी मुद्रा में संभव हो तो ठीक है अन्यथा जीभ को ऊपर पीछे की ओर मोड़कर) प्रणव यानि ओंकार की ध्वनि को सुनते हुए उसी में लिपटी हुई सर्वव्यापी ज्योतिर्मय अंतर्रात्मा का चिंतन करने की साधना नित्य नियमित यथासंभव अधिकाधिक करनी चाहिए| समय आने पर हरिकृपा से विद्युत् की चमक के समान देदीप्यमान ब्रह्मज्योति ध्यान में प्रकट होती है| उस ब्रह्मज्योति का प्रत्यक्ष साक्षात्कार करने के बाद उसी की चेतना में निरंतर रहने की साधना करें| यह ब्रह्मज्योति अविनाशी है, इसका कभी नाश नहीं होता| लघुत्तम जीव से लेकर ब्रह्मा तक का नाश हो सकता है पर इस ज्योतिर्मय ब्रह्म का कभी नाश नहीं होता| यही कूटस्थ है, और इसकी चेतना ही कूटस्थ चैतन्य है| इसकी साधना के लिए कुसंग का त्याग, यम-नियमों का पालन और सद्गुरु का मार्गदर्शन अनिवार्य है|
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हम सब को परमात्मा की पराभक्ति प्राप्त हो और हम सब उसके प्रेम में निरंतर मग्न रहें| परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति आप सब को नमन !
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शिवमस्तु ! ॐ नमः शिवाय ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१० अगस्त २०१९
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