हिन्दुत्व, स्वधर्म, और परधर्म .....
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जहाँ तक मुझे समझ में आया है, 'हिन्दुत्व' यानि 'हिन्दू धर्म' जिसे 'सनातन धर्म' भी कहते हैं, कोई औपचारिक धर्म नहीं है| इसे मानने के लिए किसी दीक्षा या मतांतरण की आवश्यकता नहीं है| कोई भी धर्मावलम्बी अपने मत में रहते हुए 'हिन्दू धर्म' के सिद्धांतों का पालन कर सकता है| देश-विदेश में रहने वाले मुझे अनेक ईसाई व अन्य मतावलंबी जीवन में मिले हैं जो अपने मतों में रहते हुए भी व्यावहारिक रूप से 'सनातन धर्म' के सिद्धांतों का पालन करते हैं .... जैसे आसन, प्राणायाम, ध्यान, व स्वाध्याय आदि| उन की बातचीत से यही स्पष्ट हुआ कि उनके हृदय में परमात्मा के प्रति गहन प्रेम है जिसकी अभिव्यक्ति का अवसर उन्हें सनातन धर्म के सिद्धांतों में ही मिला| 'हिन्दू धर्म' में दीक्षा सिर्फ गुरु परम्पराओं में ही होती है, भगवान की भक्ति के लिए नहीं|
हिन्दुत्व क्या है ? :---
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मेरे विचार से 'सनातन धर्म' या 'हिन्दुत्व' एक ऊर्ध्वमुखी चेतना है जो जीवात्मा को परमात्मा से जोड़ना चाहती है| परमात्मा के प्रति परम प्रेम, परमात्मा को पाने की अभीप्सा, और उस दिशा में की जाने वाली साधना 'सनातन धर्म' यानि 'हिन्दुत्व' है|
हिन्दू कौन हैं ? :----
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हिन्दू वह है जो आत्मा की शाश्वतता, कर्मफलों के सिद्धान्त, व पुनर्जन्म को मानता है| एक नास्तिक भी हिन्दू हो सकता है और आस्तिक भी|
हिन्दू वह है जो सत्यान्वेषी है, यानि जो सत्य को जानना व निज जीवन में अवतरित करना चाहता है|
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गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं .....
"श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्| स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः||३:३५||"
अर्थात सम्यक् प्रकार से अनुष्ठित परधर्म की अपेक्षा गुणरहित स्वधर्म का पालन श्रेयष्कर है| स्वधर्म में मरण कल्याणकारक है (किन्तु) परधर्म भय को देने वाला है||
अतः यह जानना आवश्यक है कि स्वधर्म और परधर्म क्या है| प्रत्येक व्यक्ति का स्वधर्म है| किन्हीं दो व्यक्तियों का एक स्वधर्म नहीं है| धर्म है हमारा स्वभाव, प्रकृति, और अंतःप्रकृति|
स्वधर्म :---
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अपने स्वभावानुसार सर्वश्रेष्ठ आचरण ही स्वधर्म है| हम किसी को पीड़ा नहीं दें, जहाँ तक हो सके दूसरों का उपकार ही करें|
मनुष्य यह देह नहीं अपितु एक शाश्वत आत्मा है| यहाँ 'स्व' का अर्थ 'आत्मा' ही हो सकता है, देह नहीं| आत्मा का धर्म है .... सच्चिदानंद की प्राप्ति|
मनुष्य की मौज-मस्ती में सुख की खोज, विषयों में सुख की खोज और अहंकार में सुख की खोज, अप्रत्यक्ष रूप से सच्चिदानंद की ही खोज है| मनुष्य संसार में सुख खोजता है पर उसे दुःख और पीड़ा ही मिलती है| अंततः दुखी होकर या फिर हरिःकृपा से वह स्थायी सुख यानि आनंद की खोज में परमात्मा की ओर ही उन्मुख होता है, तब उसे भक्ति और उपासना से सच्चिदानंद की प्राप्ति होती है| सच्चिदानंद का अर्थ है .... नित्य अस्तित्ववान, नित्य सचेतन और नित्य नवीन आनन्द| सार रूप में कह सकते हैं कि अपने स्वभावानुसार सर्वश्रेष्ठ सोच-विचार और आचरण ही स्वधर्म है|
परधर्म :---
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काम, क्रोध, लोभ, मोह, मत्सर्य, चुगली यानि द्वेषपूर्ण परनिंदा, परस्त्री व पराये धन की कामना 'परधर्म' है, जो मनुष्य को अपने वास्तविक अस्तित्व यानि परमात्मा से दूर ले जाता है| इस की चेतना में मरने वाले को चौरासी का चक्कर एक भयावह दुश्चक्र में डाल देता है| यथार्थ में भगवान से विमुख होना ही 'परधर्म' है|
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हम असहाय नहीं है| परमात्मा सदा हमारे साथ है| हम परिस्थितियों के शिकार नहीं बल्कि उनके जन्मदाता हैं| जिन भी परिस्थितियों में हम हैं उनको हमने ही अपने भूतकाल में अपने विचारों और भावों से जन्म दिया है| हमारा सबसे बड़ा भ्रम और हमारी सभी पीड़ाओं का कारण ...... परमात्मा से पृथकता की भावना है| यह भी एक विकार है, जिससे हमें मुक्त होना है| परमात्मा को पाने की अभीप्सा, परमात्मा से परमप्रेम और हमारे सदविचार व सदाचरण ही हमारा वास्तविक स्वधर्म है जिसका हम पालन करें| इस से विपरीत ही परधर्म है जो महादुःखदायी है|
उपरोक्त विषय पर जो लिखा है वह कम से कम शब्दों में लिखा है जिसे कोई भी औसत बुद्धि का मनुष्य समझ सकता है| यह अपने आप में पर्याप्त है|
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परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति आप सब को मेरा सादर प्रणाम !
ॐ तत्सत ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१२ अगस्त २०१९
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जहाँ तक मुझे समझ में आया है, 'हिन्दुत्व' यानि 'हिन्दू धर्म' जिसे 'सनातन धर्म' भी कहते हैं, कोई औपचारिक धर्म नहीं है| इसे मानने के लिए किसी दीक्षा या मतांतरण की आवश्यकता नहीं है| कोई भी धर्मावलम्बी अपने मत में रहते हुए 'हिन्दू धर्म' के सिद्धांतों का पालन कर सकता है| देश-विदेश में रहने वाले मुझे अनेक ईसाई व अन्य मतावलंबी जीवन में मिले हैं जो अपने मतों में रहते हुए भी व्यावहारिक रूप से 'सनातन धर्म' के सिद्धांतों का पालन करते हैं .... जैसे आसन, प्राणायाम, ध्यान, व स्वाध्याय आदि| उन की बातचीत से यही स्पष्ट हुआ कि उनके हृदय में परमात्मा के प्रति गहन प्रेम है जिसकी अभिव्यक्ति का अवसर उन्हें सनातन धर्म के सिद्धांतों में ही मिला| 'हिन्दू धर्म' में दीक्षा सिर्फ गुरु परम्पराओं में ही होती है, भगवान की भक्ति के लिए नहीं|
हिन्दुत्व क्या है ? :---
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मेरे विचार से 'सनातन धर्म' या 'हिन्दुत्व' एक ऊर्ध्वमुखी चेतना है जो जीवात्मा को परमात्मा से जोड़ना चाहती है| परमात्मा के प्रति परम प्रेम, परमात्मा को पाने की अभीप्सा, और उस दिशा में की जाने वाली साधना 'सनातन धर्म' यानि 'हिन्दुत्व' है|
हिन्दू कौन हैं ? :----
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हिन्दू वह है जो आत्मा की शाश्वतता, कर्मफलों के सिद्धान्त, व पुनर्जन्म को मानता है| एक नास्तिक भी हिन्दू हो सकता है और आस्तिक भी|
हिन्दू वह है जो सत्यान्वेषी है, यानि जो सत्य को जानना व निज जीवन में अवतरित करना चाहता है|
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गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं .....
"श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्| स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः||३:३५||"
अर्थात सम्यक् प्रकार से अनुष्ठित परधर्म की अपेक्षा गुणरहित स्वधर्म का पालन श्रेयष्कर है| स्वधर्म में मरण कल्याणकारक है (किन्तु) परधर्म भय को देने वाला है||
अतः यह जानना आवश्यक है कि स्वधर्म और परधर्म क्या है| प्रत्येक व्यक्ति का स्वधर्म है| किन्हीं दो व्यक्तियों का एक स्वधर्म नहीं है| धर्म है हमारा स्वभाव, प्रकृति, और अंतःप्रकृति|
स्वधर्म :---
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अपने स्वभावानुसार सर्वश्रेष्ठ आचरण ही स्वधर्म है| हम किसी को पीड़ा नहीं दें, जहाँ तक हो सके दूसरों का उपकार ही करें|
मनुष्य यह देह नहीं अपितु एक शाश्वत आत्मा है| यहाँ 'स्व' का अर्थ 'आत्मा' ही हो सकता है, देह नहीं| आत्मा का धर्म है .... सच्चिदानंद की प्राप्ति|
मनुष्य की मौज-मस्ती में सुख की खोज, विषयों में सुख की खोज और अहंकार में सुख की खोज, अप्रत्यक्ष रूप से सच्चिदानंद की ही खोज है| मनुष्य संसार में सुख खोजता है पर उसे दुःख और पीड़ा ही मिलती है| अंततः दुखी होकर या फिर हरिःकृपा से वह स्थायी सुख यानि आनंद की खोज में परमात्मा की ओर ही उन्मुख होता है, तब उसे भक्ति और उपासना से सच्चिदानंद की प्राप्ति होती है| सच्चिदानंद का अर्थ है .... नित्य अस्तित्ववान, नित्य सचेतन और नित्य नवीन आनन्द| सार रूप में कह सकते हैं कि अपने स्वभावानुसार सर्वश्रेष्ठ सोच-विचार और आचरण ही स्वधर्म है|
परधर्म :---
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काम, क्रोध, लोभ, मोह, मत्सर्य, चुगली यानि द्वेषपूर्ण परनिंदा, परस्त्री व पराये धन की कामना 'परधर्म' है, जो मनुष्य को अपने वास्तविक अस्तित्व यानि परमात्मा से दूर ले जाता है| इस की चेतना में मरने वाले को चौरासी का चक्कर एक भयावह दुश्चक्र में डाल देता है| यथार्थ में भगवान से विमुख होना ही 'परधर्म' है|
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हम असहाय नहीं है| परमात्मा सदा हमारे साथ है| हम परिस्थितियों के शिकार नहीं बल्कि उनके जन्मदाता हैं| जिन भी परिस्थितियों में हम हैं उनको हमने ही अपने भूतकाल में अपने विचारों और भावों से जन्म दिया है| हमारा सबसे बड़ा भ्रम और हमारी सभी पीड़ाओं का कारण ...... परमात्मा से पृथकता की भावना है| यह भी एक विकार है, जिससे हमें मुक्त होना है| परमात्मा को पाने की अभीप्सा, परमात्मा से परमप्रेम और हमारे सदविचार व सदाचरण ही हमारा वास्तविक स्वधर्म है जिसका हम पालन करें| इस से विपरीत ही परधर्म है जो महादुःखदायी है|
उपरोक्त विषय पर जो लिखा है वह कम से कम शब्दों में लिखा है जिसे कोई भी औसत बुद्धि का मनुष्य समझ सकता है| यह अपने आप में पर्याप्त है|
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परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति आप सब को मेरा सादर प्रणाम !
ॐ तत्सत ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१२ अगस्त २०१९
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