Thursday, 5 September 2019

वही योग-साधना सर्वश्रेष्ठ है जो निज स्वभाव के अनुकूल हो .....

वही योग-साधना सर्वश्रेष्ठ है जो निज स्वभाव के अनुकूल हो .....
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मैंने जीवन में देखा और अनुभूत किया है कि गीता का अध्ययन करने वाले सतोगुण प्रधान व्यक्ति को ज्ञानयोग या भक्तियोग ही अच्छा लगता है, रजोगुण प्रधान व्यक्ति को कर्मयोग अच्छा लगता है, और तमोगुण प्रधान व्यक्ति को मरने मारने के अलावा और कुछ समझ में नहीं आता| जिस व्यक्ति में जो गुण प्रधान होता है वह वैसी ही साधना करता है| अतः जो निज स्वभाव के पूर्णतः अनुकूल हो वही योगसाधना सर्वश्रेष्ठ है| इसका निर्णय हमारा विवेक करता है| यदि विवेक साथ नहीं दे रहा है तो भगवान के शरणागत होकर उन्हीं से मार्गदर्शन की प्रार्थना करनी चाहिए जैसे अर्जुन ने की थी ....
"कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसंमूढचेताः| यच्छ्रेयः स्यान्निश्चित्तम् ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्||२:७||"
अर्थात ..... करुणा के कलुष से अभिभूत और कर्तव्यपथ पर संभ्रमित हुआ मैं आपसे पूछता हूँ कि मेरे लिये जो श्रेयष्कर हो उसे आप निश्चय करके कहिये क्योंकि मैं आपका शिष्य हूँ शरण में आये मुझको आप उपदेश दीजिये||
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यह सृष्टि त्रिगुणात्मक है| पूरी प्रकृति और समस्त जीवों की सृष्टि और चेतना ..... सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण ..... इन तीन गुणों से निर्मित है| जिस भी प्राणी में जो गुण अधिक होता है उसकी सोच और चिंतन वैसा ही होता है| भगवन श्रीकृष्ण अपने भक्त को तीनों गुणों से परे जाने का आदेश देते हैं ....
"त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन| निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्||२:४५||"
अर्थात् हे अर्जुन वेदों का विषय तीन गुणों से सम्बन्धित (संसार से) है तुम त्रिगुणातीत, निर्द्वन्द्व, नित्य सत्त्व (शुद्धता) में स्थित, योगक्षेम से रहित और आत्मवान् बनो||
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हम त्रिगुणातीत कैसे बनें ? इसका उत्तर "शरणागति" है| भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं .....
"सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज| अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः||१८:६६||"
अर्थात् सब धर्मों का परित्याग करके तुम एक मेरी ही शरण में आओ| मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम शोक मत करो||
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भगवान् के शरणागत हो जाना आध्यात्मिक जीवनमुक्ति, सभी साधनों का सार और भक्ति की पराकाष्ठा है| इसमें शरणागत भक्त को अपने लिये कुछ भी करना शेष नहीं रहता; जैसे पतिव्रता स्त्री का अपना कोई काम नहीं रहता। वह अपने शरीर की सार-सँभाल भी पति के लिये ही करती है। वह घर, कुटुम्ब, वस्तु, पुत्र-पुत्री और अपने कहलाने वाले शरीर को भी अपना नहीं मानती, प्रत्युत पतिदेव का मानती है, उसी प्रकार शरणागत भक्त भी अपने मन,बुद्धि और देह आदि को भगवान् के चरणों में समर्पित करके निश्चिन्त, निर्भय, निःशोक और निःशंक हो जाता है|
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जब हमें उनके श्री चरणों में आश्रय मिल जाए तो फिर और चाहिए भी क्या? देवाधिदेव भगवान शिव भी झोली फैलाकर नारायण से माँग रहे हैं कि हे मेरे श्रीरंग अर्थात् श्री के साथ रमण करने वाले मुझे यह भिक्षा दो कि आपके चरणों की शरणागति कभी न छूटे|
"बार बार बर माँगऊ हरषिदेइ श्रीरंग| पद सरोज अनपायनी भगति सदा सत्संग||"
अनपायनी शब्द का अर्थ है- शरणागति ! हम अधिक से अधिक भगवान का ध्यान करें और उनके श्रीचरणों में समर्पित होकर शरणागत हों, एक क्षण के लिए भी उनकी विस्मृति ना हो| उनसे पृथक हमारा कोई अस्तित्व ना रहे| भगवान् के चरणों में हमारी ऐसी भक्ति हो जो निरंतर बढ़ती रहे|
"अरथ न धरम न काम रुचि गति न चहउँ निरवान| जनम-जनम रति रामपद यह वरदान न आन||"
जो घटता-बढ़ता रहता है वह प्रेम नहीं हो सकता| भगवान् कल्पतरु हैं, और भक्ति भी कल्पतरु है| उनसे जो मांगेंगे वह सब मिलेगा| फिर भक्ति को ही मांगिये|
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"कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने| प्रणत क्लेश नाशाय गोविन्दाय नमो नमः||"
परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति आप सभी को शुभ कामनाएँ और सादर सप्रेम अभिनन्दन व प्रणाम ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
झुञ्झुणु (राजस्थान)
१६ अगस्त २०१९

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