"स्थितप्रज्ञता" ही वास्तविक "स्वतन्त्रता" है .....
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वास्तविक स्वतन्त्रता तो परमात्मा में है| परमात्मा से पृथकता ही परतंत्रता है| परमात्मा से पृथकता का कारण है ... हमारा राग-द्वेष, अहंकार, भय और क्रोध| अन्यथा परमात्मा तो नित्यप्राप्त है| सब प्रकार की कामनाओं से मुक्त हो, स्थितप्रज्ञ होकर हम परमात्मा में स्थित हों तभी हम वास्तव में स्वतंत्र हैं|
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राग-द्वेष और अहंकार से मुक्ति वीतरागता है| 'वीतराग विषयं वा चित्तम्' (योगसूत्र १/३७)| वीतराग पुरुषों का चिंतन कर, उन्हें चित्त में धारण कर, उनके निरंतर सत्संग से हम वीतराग हो जाते हैं| वीतरागता से आगे की स्थिति स्थितप्रज्ञता है| भगवान श्रीकृश्न गीता में कहते हैं .....
दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः| वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते||२:५६||
दुःख तीन प्रकार के होते हैं .... "आध्यात्मिक", "आधिभौतिक" और "आधिदैविक"| इन दुःखों से जिनका मन उद्विग्न यानि क्षुभित नहीं होता उसे "अनुद्विग्नमना" कहते हैं| सुखों की प्राप्ति में जिसकी स्पृहा यानि तृष्णा नष्ट हो गयी है (ईंधन डालने से जैसे अग्नि बढ़ती है वैसे ही सुख के साथ साथ जिसकी लालसा नहीं बढ़ती) वह "विगतस्पृह" कहलाता है| राग, द्वेष और अहंकार से मुक्ति वीतरागता है| जो वीतराग है और जिसके भय और क्रोध नष्ट हो गये हैं, वह "वीतरागभयक्रोध" कहलाता है| ऐसे गुणोंसे युक्त जब कोई हो जाता है तब वह "स्थितधी" यानी "स्थितप्रज्ञ" और मुनि या संन्यासी कहलाता है| यह स्थितप्रज्ञता" ही वास्तविक "स्वतन्त्रता" है|
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ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१५ अगस्त २०१९
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वास्तविक स्वतन्त्रता तो परमात्मा में है| परमात्मा से पृथकता ही परतंत्रता है| परमात्मा से पृथकता का कारण है ... हमारा राग-द्वेष, अहंकार, भय और क्रोध| अन्यथा परमात्मा तो नित्यप्राप्त है| सब प्रकार की कामनाओं से मुक्त हो, स्थितप्रज्ञ होकर हम परमात्मा में स्थित हों तभी हम वास्तव में स्वतंत्र हैं|
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राग-द्वेष और अहंकार से मुक्ति वीतरागता है| 'वीतराग विषयं वा चित्तम्' (योगसूत्र १/३७)| वीतराग पुरुषों का चिंतन कर, उन्हें चित्त में धारण कर, उनके निरंतर सत्संग से हम वीतराग हो जाते हैं| वीतरागता से आगे की स्थिति स्थितप्रज्ञता है| भगवान श्रीकृश्न गीता में कहते हैं .....
दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः| वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते||२:५६||
दुःख तीन प्रकार के होते हैं .... "आध्यात्मिक", "आधिभौतिक" और "आधिदैविक"| इन दुःखों से जिनका मन उद्विग्न यानि क्षुभित नहीं होता उसे "अनुद्विग्नमना" कहते हैं| सुखों की प्राप्ति में जिसकी स्पृहा यानि तृष्णा नष्ट हो गयी है (ईंधन डालने से जैसे अग्नि बढ़ती है वैसे ही सुख के साथ साथ जिसकी लालसा नहीं बढ़ती) वह "विगतस्पृह" कहलाता है| राग, द्वेष और अहंकार से मुक्ति वीतरागता है| जो वीतराग है और जिसके भय और क्रोध नष्ट हो गये हैं, वह "वीतरागभयक्रोध" कहलाता है| ऐसे गुणोंसे युक्त जब कोई हो जाता है तब वह "स्थितधी" यानी "स्थितप्रज्ञ" और मुनि या संन्यासी कहलाता है| यह स्थितप्रज्ञता" ही वास्तविक "स्वतन्त्रता" है|
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ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१५ अगस्त २०१९
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