Saturday, 7 December 2019

साधकत्व व साधुत्व का अभिमान .....

साधकत्व व साधुत्व का अभिमान निश्चित रूप से पतनगामी है| सांप-सीढ़ी के खेल में जैसे सांप के कालरूपी मुँह में जाते ही पतन हो जाता है| वैसे ही जरा सा भी अभिमान होते ही एक साधक व साधु कालकवलित हो जाते हैं|
इस से बचने का बहुत सुंदर उपाय भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में बताया है.....
"तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व जित्वा शत्रून् भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम् |
मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन् ||११:३३||"
(इसलिए तुम उठ खड़े हो जाओ और यश को प्राप्त करो शत्रुओं को जीतकर समृद्ध राज्य को भोगो। ये सब पहले से ही मेरे द्वारा मारे जा चुके हैं। हे सव्यसाचिन् तुम केवल निमित्त ही बनो)
और
"अमानित्वमदम्भित्वमहिंसा क्षान्तिरार्जवम् |
आचार्योपासनं शौचं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः ||१३:८||"
(अमानित्व अदम्भित्व अहिंसा क्षमा आर्जव आचार्य की सेवा शुद्धि स्थिरता और आत्मसंयम)

इसके बहुत सारे उदाहरण महाभारत में और पुराणों में दिए हैं जिनको यहाँ उद्धृत करना मैं आवश्यक नहीं समझता| सार की बात यहाँ कह दी है|
परमात्मा की कृपा सब पर बनी रहे | ॐ तत्सत ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२ नवंबर २०१९

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