Saturday, 7 December 2019

अयमात्मा ब्रह्म .....

अयमात्मा ब्रह्म .....
इस संसार चक्र में बार बार हम आने को बाध्य हैं क्योंकि हम देह की चेतना से जुड़े हुए हैं| संसार में ज्ञानी, मुमुक्षु, अज्ञानी और मूढ़ ... ये चार प्रकार के लोग होते हैं| देह को आत्मा मानने से जन्म मरण रूपी संसार चक्र में पुन: पुन: भ्रमण करता पड़ता है| हम पृथ्वी नहीं हैं, जल नहीं हैं, अग्नि नहीं हैं, वायु नहीं हैं, और आकाश भी नहीं हैं| फिर हम हैं कौन?
श्रुति कहती है - अयमात्मा ब्रह़म्, अर्थात जो आत्मा है वही ब्रह्म हैं, वही ईश्वर है, वही मैं हूँ| मैं यह देह नहीं, शाश्वत आत्मा हूँ| जब हम इस स्थूल देह और इंद्रियों के विषयों से परे हट कर साक्षी भाव में स्थित हो, साक्षी भाव से भी ऊपर उठ जाएँ तब आत्म-ज्ञान प्राप्त होता है| अध्ययन से आत्मज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता| अध्ययन प्रेरणा दे सकता है और कुछ सीमा तक मार्गदर्शन भी कर सकता है, उससे अधिक नहीं| किसी के प्रवचन सुनकर भी आत्मज्ञान नहीं प्राप्त हो सकता| राजा जनक एक अपवाद थे| प्रवचन सुनकर प्रेरणा और उत्साह ही प्राप्त हो सकते हैं, आत्मज्ञान नहीं|
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हे जगन्माता हम तुम्हारी शरणागत हैं| किसी भी प्रकार की साधना करने में हम असमर्थ हैं| करुणा और कृपा कर के हमें अपना उपकरण बनाओ, और आप ही इस उपकरण से साधना करो| हमें आत्म-तत्व में स्थित करो| आपकी करुणा और परमप्रेम ही हमारा उद्धार कर सकते हैं| ॐ शांति शांति शांति !!
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ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ |
कृपा शंकर
३० अक्टूबर २०१९

1 comment:

  1. हे जगन्माता, रक्षा करो| बालक विष्ठा में पड़ा होता है तब माँ ही उसे उज्ज्वल कर सकती है| अपने आप तो वह कभी स्वच्छ हो नहीं सकता| यह सांसारिकता भी किसी विष्ठा से कम नहीं है| हम ने तो कहा नहीं था कि आप हमें इस माया-मोह में डालो| आप ने ही "बलादाकृष्य मोहाय, महामाया प्रयच्छति" यानि बलात् आकर्षित कर के इस माया-मोह रूपी घोर नर्ककुंड में डाला| अब आप को ही हमें मुक्त करना होगा| हमारा सामर्थ्य आप ही हो| हमारे में स्वयं में कोई सामर्थ्य नहीं है| बड़ी बड़ी बातें, बड़ा बड़ा ज्ञान अब हमें अच्छा नहीं लगता| हमें सिर्फ आपका प्रेम चाहिए, और कुछ भी नहीं| आपका प्रेम ही हमारा मोक्ष है, वही हमारी मुक्ति है| आपके पूर्णप्रेम के अतिरिक्त हमें और कुछ ही नहीं चाहिए| हम आपकी शरणागत हूँ| हमारा कल्याण करो, हमारी निरंतर रक्षा करो|

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