हमारे भगवान बड़े ही ईर्ष्यालु प्रेमी हैं .....
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हमारे भगवान बड़े ही ईर्ष्यालु प्रेमी हैं| उन्हें हमारे प्रेम का शत-प्रतिशत चाहिए| ९९.९९% भी उन्हें स्वीकार्य नहीं है| वे तो १००% से कम कुछ स्वीकार ही नहीं करते| अब जब उन से प्रेम हो ही गया है तब उनकी मांग भी पूरी करनी ही पड़ेगी| उनके सिवाय अन्य है ही कौन??? गीता में अर्जुन को भी यह स्वीकार करना ही पड़ा ...
"वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्कः प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च |
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते ||११:३९||
नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व |
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः ||११:४०||"
यहाँ अंतिम पंक्ति सर्वाधिक महत्वपूर्ण है जिस पर ध्यान दें ... "सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः"|
अब तो बस एक ही उपाय है कि हम स्वयं ही परमप्रेमय हो जाएँ|
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भक्ति सूत्र में देवर्षि नारद कहते हैं :---
अथातो भक्तिं व्याख्यास्याम:||१|| सा त्वस्मिन् परमप्रेमरूपा ||२|| अमृतस्वरूपा च ||३|| यल्लब्ध्वा पुमान् सिद्धो भवति, अमृतो भवति, तृप्तो भवति ||४||
अब हम भक्ति की व्याख्या करेंगे ||१|| वह भक्ति ईश्वर में परमप्रेम रूपा है||२||
अमृतस्वरूपा है||३|| इसे प्राप्त कर मनुष्य सिद्ध हो जाता है, अमृत समान हो जाता है, तृप्त हो जाता है||४|| एक स्थान पर नारद जी कहते हैं .... "यथा व्रज गोपिकानां" अर्थात जैसी भक्ति व्रज की गोपियों में थी वैसी ही होनी चाहिए|
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गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं .....
"कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभिहि प्रिय जिमि दाम |
तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम ||"
"परमानंद कृपायतन मन परिपूरन काम| प्रेम भगति अनपायनी देहु हमहि श्रीराम||"
"अबिरल भगति बिसुद्ध तव श्रुति पुरान जो गाव| जेहि खोजत जोगीस मुनि प्रभु प्रसाद कोउ पाव||
भगत कल्पतरू प्रनत हित कृपा सिंधु सुखधाम| सोइ निज भगति मोहि प्रभु देहु दया करि राम||"
भक्ति का फल है .....
"मम दरसन फल परम अनूपा| जीव पाव निज सहज सरूपा ||"
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"या प्रीतिरविवेकानां विषयेष्वनपायिनी| त्वामनुस्मरतः सा मे ह्दयान्माऽपसर्पतु||" [विष्णुपुराण १.२०.१९]
हे प्रभु! अविवेकी जनों की जैसी गाढ़ी प्रीति विषयों में रहती है (जैसे कामी पुरुष की प्रीति स्त्री में, लोभी पुरुष का धन में), उसी प्रकार की प्रीति मेरी आपमें हो और आपका स्मरण करते हुए मेरे हृदय से आप कभी दूर न होवे|
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"युवतीनां यथा यूनि यूनां च युवतौ यथा| मनोऽभिरमते तद्वन्मनोऽभिरमतां त्वयि|| [पद्मपुराण ६.१२८.२५८]
जैसे युवतियों कि प्रीति युवको में होती है, और जैसे युवकों का मन युवतियों में रमता हैं उसी तरह हे प्रभु! मेरा मन भी आप में सदा रमता रहे|
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मानुष हों तो वही "रसखानि" बसौं ब्रज-गोकुल गाँव के ग्वारन|
जो पशु हौं तो कहा बस मेरौ, चरौं नित नंद की धेनु मँझारन||
पाहन हौं तो वही गिरि कौ, जो धरयौ कर छत्र पुरंदर कारन।
जो खग हौं तो बसेरौ करौं नित कालिंदी कूल कदंब की डारन॥
या लकुटी अरु कामरिया पै राज तिहूँ को तजि डारौं।
आठहु सिद्धि नवों निधि को सुख, नंद की धेनु चराई बिसारौं॥
इन आँखिन सों "रसखानि" कबौं ब्रज के बन-बाग-तड़ाग निहारौं।
कोटिक हौं कलधौत के धाम, करील की कुन्जन ऊपर वारौं॥" (रसखान)
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हे श्रीहरिः ! अब और तुम्हारे बिना नहीं रह सकते| अब जल बिन मछली की सी छटपटाहट है, प्राण कंठ में अटक रहे हैं|
"जे ब्रह्म अजमद्वैतमनुभवगम्य मनपर ध्यावहीं|
ते कहहुँ जानहुँ नाथ हम तव सगुन जस नित गावहीं||
करुनायतन प्रभु सदगुनाकर देव यह बर मागहीं
मन बचन कर्म बिकार तजि तव चरन हम अनुरागहीं||" (रामचरितमानस)
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ॐ तत्सत ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२९ अक्टूबर २०१९
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हमारे भगवान बड़े ही ईर्ष्यालु प्रेमी हैं| उन्हें हमारे प्रेम का शत-प्रतिशत चाहिए| ९९.९९% भी उन्हें स्वीकार्य नहीं है| वे तो १००% से कम कुछ स्वीकार ही नहीं करते| अब जब उन से प्रेम हो ही गया है तब उनकी मांग भी पूरी करनी ही पड़ेगी| उनके सिवाय अन्य है ही कौन??? गीता में अर्जुन को भी यह स्वीकार करना ही पड़ा ...
"वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्कः प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च |
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते ||११:३९||
नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व |
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः ||११:४०||"
यहाँ अंतिम पंक्ति सर्वाधिक महत्वपूर्ण है जिस पर ध्यान दें ... "सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः"|
अब तो बस एक ही उपाय है कि हम स्वयं ही परमप्रेमय हो जाएँ|
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भक्ति सूत्र में देवर्षि नारद कहते हैं :---
अथातो भक्तिं व्याख्यास्याम:||१|| सा त्वस्मिन् परमप्रेमरूपा ||२|| अमृतस्वरूपा च ||३|| यल्लब्ध्वा पुमान् सिद्धो भवति, अमृतो भवति, तृप्तो भवति ||४||
अब हम भक्ति की व्याख्या करेंगे ||१|| वह भक्ति ईश्वर में परमप्रेम रूपा है||२||
अमृतस्वरूपा है||३|| इसे प्राप्त कर मनुष्य सिद्ध हो जाता है, अमृत समान हो जाता है, तृप्त हो जाता है||४|| एक स्थान पर नारद जी कहते हैं .... "यथा व्रज गोपिकानां" अर्थात जैसी भक्ति व्रज की गोपियों में थी वैसी ही होनी चाहिए|
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गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं .....
"कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभिहि प्रिय जिमि दाम |
तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम ||"
"परमानंद कृपायतन मन परिपूरन काम| प्रेम भगति अनपायनी देहु हमहि श्रीराम||"
"अबिरल भगति बिसुद्ध तव श्रुति पुरान जो गाव| जेहि खोजत जोगीस मुनि प्रभु प्रसाद कोउ पाव||
भगत कल्पतरू प्रनत हित कृपा सिंधु सुखधाम| सोइ निज भगति मोहि प्रभु देहु दया करि राम||"
भक्ति का फल है .....
"मम दरसन फल परम अनूपा| जीव पाव निज सहज सरूपा ||"
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"या प्रीतिरविवेकानां विषयेष्वनपायिनी| त्वामनुस्मरतः सा मे ह्दयान्माऽपसर्पतु||" [विष्णुपुराण १.२०.१९]
हे प्रभु! अविवेकी जनों की जैसी गाढ़ी प्रीति विषयों में रहती है (जैसे कामी पुरुष की प्रीति स्त्री में, लोभी पुरुष का धन में), उसी प्रकार की प्रीति मेरी आपमें हो और आपका स्मरण करते हुए मेरे हृदय से आप कभी दूर न होवे|
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"युवतीनां यथा यूनि यूनां च युवतौ यथा| मनोऽभिरमते तद्वन्मनोऽभिरमतां त्वयि|| [पद्मपुराण ६.१२८.२५८]
जैसे युवतियों कि प्रीति युवको में होती है, और जैसे युवकों का मन युवतियों में रमता हैं उसी तरह हे प्रभु! मेरा मन भी आप में सदा रमता रहे|
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मानुष हों तो वही "रसखानि" बसौं ब्रज-गोकुल गाँव के ग्वारन|
जो पशु हौं तो कहा बस मेरौ, चरौं नित नंद की धेनु मँझारन||
पाहन हौं तो वही गिरि कौ, जो धरयौ कर छत्र पुरंदर कारन।
जो खग हौं तो बसेरौ करौं नित कालिंदी कूल कदंब की डारन॥
या लकुटी अरु कामरिया पै राज तिहूँ को तजि डारौं।
आठहु सिद्धि नवों निधि को सुख, नंद की धेनु चराई बिसारौं॥
इन आँखिन सों "रसखानि" कबौं ब्रज के बन-बाग-तड़ाग निहारौं।
कोटिक हौं कलधौत के धाम, करील की कुन्जन ऊपर वारौं॥" (रसखान)
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हे श्रीहरिः ! अब और तुम्हारे बिना नहीं रह सकते| अब जल बिन मछली की सी छटपटाहट है, प्राण कंठ में अटक रहे हैं|
"जे ब्रह्म अजमद्वैतमनुभवगम्य मनपर ध्यावहीं|
ते कहहुँ जानहुँ नाथ हम तव सगुन जस नित गावहीं||
करुनायतन प्रभु सदगुनाकर देव यह बर मागहीं
मन बचन कर्म बिकार तजि तव चरन हम अनुरागहीं||" (रामचरितमानस)
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ॐ तत्सत ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२९ अक्टूबर २०१९
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