हम अपने परिजनों के असह्य कष्टों के साक्षी होने को बाध्य क्यों हैं? क्या दुःखों से मुक्त होने का कोई उपाय है?
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नारायण !! हम दिन रात एक करके हाडतोड़ परिश्रम करते हैं, ताकि हम पर आश्रित परिजन सुखी रहें। लेकिन उन पर आये हुए कष्टों के साक्षी होने को भी बाध्य हम होते हैं। इसका क्या कारण है? इस पर गंभीरता से विचार कर के मैं इस निर्णय पर पहुँचा हूँ कि ---
प्रकृति हमें यह बोध कराना चाहती है कि -- "हम यह देह ही नहीं हैं, तब ये परिजन हमारे कैसे हुए?"
सब के अपने अपने प्रारब्ध हैं, सबका अपना अपना भाग्य है। सभी अपने कर्मों का फल भोगने को जन्म लेते हैं। पूर्व जन्मों के शत्रु और मित्र, अगले जन्मों में या तो एक ही परिवार या समाज में जन्म लेते हैं या फिर पुनश्चः आपस में मिल कर पुराना हिसाब किताब चुकाते हैं। यह बात सभी पर लागू होती है।
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इस संसार में कष्ट सब को है। किसी का कष्ट कम है, किसी का अधिक। जो लोग आध्यात्म मार्ग के पथिक हैं उनको तो ये कष्ट अधिक ही होते हैं। लेकिन हम अपनी ओर से हर परिस्थिति में पूर्ण सत्यनिष्ठा से धर्म के मार्ग पर अडिग रहें।
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गीता में भगवान हमें वीतराग और स्थितप्रज्ञ होने का उपदेश देते हैं। स्थितप्रज्ञ होकर ही हम सुख-दुःख से परे हो सकते हैं ---
"प्रजहाति यदा कामान् सर्वान् पार्थ मनोगतान्।
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते॥२:५५॥"
"दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते॥२:५६॥"
"यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्।
नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥२:५७॥"
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भ्रामरी गुफा (साधना में प्रवेश) के द्वार पर, विक्षेप व आवरण (माया के दो रूप) नाम की दो राक्षसियाँ, और प्रमाद-दीर्घसूत्रता (आलस्य और कार्य को आगे के लिए टालने की प्रवृत्ति), राग-द्वेष-अहंकार नाम के राक्षस बैठे हैं। ये बड़े कष्टदायी हैं। बार-बार हमें चारों खाने चित्त गिरा देते हैं। ये कभी नहीं हटते, स्थायी रूप से यहीं रहते हैं। कैसे भी इन से मुक्त होकर भ्रामरी गुफा में प्रवेश करना ही है। परमात्मा को शरणागति द्वारा समर्पित होने का निरंतर प्रयास व प्रभु के प्रति प्रेम, प्रेम, प्रेम, परम प्रेम और परमात्मा का अनुग्रह ही हमारी रक्षा कर सकता है। अन्य कोई उपाय नहीं है। गीता में सारा मार्गदर्शन है। स्वाध्याय और साधना का कष्ट तो स्वयं को ही उठाना पड़ेगा। फेसबुक पर पढ़कर ही किसी को ब्रह्मज्ञान नहीं मिल सकता। ब्रह्मज्ञान की लिंक और सोर्स सब स्वयं की अंतर्रात्मा में है। मार्गदर्शन ही लेना है तो किसी सिद्ध ब्रहमनिष्ठ श्रौत्रीय आचार्य के चरणों में बैठकर बड़ी विनम्रता से लें। ॐ तत्सत ! ॐ ॐ ॐ॥
कृपा शंकर
२ मई २०२१
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