(प्रश्न). भगवान कौन हैं? क्या हैं? कैसे उन्हें जाना जाये? कैसे उन्हें पाया जाये? ---
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(उत्तर). ये शाश्वत सनातन प्रश्न हैं, जिन्हें सृष्टि के आदि काल से सदा ही पूछा गया है, और मनीषियों ने अपनी अपनी समझ से हर काल में सदा ही इनका उत्तर भी दिया है। यदि भगवान को जानने व पाने की जिज्ञासा किसी के भी मन में आती है, तो यह एक स्वस्थ मन की निशानी है। इन प्रश्नों की खूबी यह है कि दूसरों के उत्तरों से कभी किसी को संतुष्टि नहीं मिली है। स्वयं की अंतर्रात्मा या अंतरतम चेतना से प्राप्त उत्तर ही संतुष्ट और तृप्त करते हैं। ऐसी जिज्ञासायें और उन के समाधान, व उन पर आचरण ही सनातन धर्म है। भगवान को जानने, पाने, व स्वयं के जीवन में व्यक्त करने की अभीप्सा, समाधान और उनसे निर्देशित सदाचरण ही हमारा स्वधर्म है, और यही सनातन है, जिसे वैदिक काल से ही उपनिषदों, और तत्पश्चात रामायण, महाभारत, मनुस्मृति आदि ग्रन्थों में समझाया गया है।
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किसी ने इसे गूंगे को गुड़ का स्वाद बताया है, किसी ने इसे समुद्र में नमक के पुतले द्वारा लगाई हुई डुबकी और उसके गल कर विलीन होने की अनुभूति बताया है, किसी ने इसे जल की एक बूंद के महासागर में विलीन होने को बताया है, लेकिन सत्य को तो स्वयं की जागृत अंतर्रात्मा ही अनुभूत कर सकती है जो हमारे अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार) की सीमाओं से परे है। यह "सत्य" ही ईश्वर है, जिसे हम भगवान, परमात्मा, सच्चिदानंद आदि नामों से पुकारते हैं।
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पूर्ण अनुभूति तो ईश्वर की कृपा से ही कभी होगी, लेकिन मेरी आधी-अधूरी अनुभूति तो यह है कि --- "जिन की अनुकंपा से हम चैतन्य हैं, और जिन के प्रकाश से हमें स्वयं के होने का बोध होता है, वे ही हमारे परमप्रिय परमात्मा हैं, जिन का प्रेम रूपी प्रकाश हमें निरंतर प्राप्त हो रहा है"।
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परमात्मा की कृपा से निज जीवन में गुरु-तत्व से प्राप्त मार्गदर्शन ही अब तक की सबसे बड़ी उपलब्धि है। जैसे चुंबक की सूई सदा उत्तर दिशा में ध्रुव की ओर ही घूम जाती है, वैसे ही -- परमात्मा, मेरे इस जीवन के ध्रुव बन गए हैं, और मन रूपी चुंबक की सूई, अनेक झंझावातों के पश्चात भी, सदा उनकी ओर ही घूमती रहती है। सामने एक अनंत मार्ग है, लेकिन कोई चिंता की बात नहीं है, क्योंकि उनकी परम-ज्योति, कूटस्थ-चैतन्य में पूर्ण रूप से प्रज्ज्वलित है।
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हम उन को अपने हृदय का परमप्रेम दें, और उन की चेतना में आनंदमय रहें। परमप्रेम हमारा स्वभाव है, और आनंद उसकी परिणिती। मार्गदर्शन की ज़िम्मेदारी तो स्वयं परमात्मा की है, वे मार्गदर्शन निश्चित रूप से करेंगे, लेकिन उस से पूर्व हमें अपने हृदय का पूर्ण प्रेम उन्हें अर्पित करना होगा। इस सृष्टि में कुछ भी निःशुल्क नहीं है, हर चीज का शुल्क चुकाना पड़ता है। परमात्मा की अनुभूति के लिए हमें अपने हृदय का शत-प्रतिशत प्रेम रूपी शुल्क उन्हें चुकाना ही होगा। उसके बिना कुछ भी नहीं मिलेगा।
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परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति आप सब निजात्मगण को नमन !! ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
८ मई २०२१
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