पूर्ण भक्ति और सत्यनिष्ठा से कूटस्थ में ज्योतिर्मय ब्रह्म की अनंतता/सर्व-व्यापकता का अधिकाधिक ध्यान अपनी गुरु-परंपरानुसार निमित्त मात्र होकर करें। अनंतता ही हमारी देह है, यह भौतिक शरीर नहीं। भौतिक शरीर तो एक वाहन/साधन मात्र है, जिस पर हम यह लोकयात्रा कर रहे हैं। ध्यान के समय कमर सीधी रहे, दृष्टिपथ भ्रूमध्य में रहे, और जीभ ऊपर पीछे की ओर मुड़कर तालु से सटी रहे। ऊनी कंबल पर पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुंह कर के बैठें। यदि खेचरी-मुद्रा सिद्ध है, तो खेचरी मुद्रा में ही ध्यान करें।
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ध्यान में चेतना जितनी देर तक इस भौतिक शरीर से बाहर रहेगी, उतनी ही त्वरित प्रगति होगी। साधनाकाल में आवश्यक है -- पवित्रता से बनाया हुआ शुद्ध शाकाहारी सात्विक भोजन, अच्छे आचार-विचार, कुसंग का पूर्णतः त्याग, और पवित्र सात्विक जीवन।
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भगवान श्रीकृष्ण योगेश्वर और जगतगुरु हैं। उन्हीं को अपने जीवन का केंद्रबिंदु व कर्ता बनायें। इस देह को अपना एक उपकरण बनाकर वे ही ध्यान करते हैं। हम तो साक्षी मात्र हैं। भगवान स्वयं ही हंसः योग, लय योग, व क्रिया योग आदि कर रहे हैं। वे स्वयं ही अपना स्मरण हर समय हमारे माध्यम से करते हैं।
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शिव-संहिता में महामुद्रा की विधि दी हुई है। ध्यान से पूर्व महामुद्रा का अभ्यास करें। जब भी थक जाएँ, महामुद्रा का फिर अभ्यास करे। जो योगमार्ग के पथिक हैं, उन्हें श्रीमद्भगवद्गीता, श्वेताश्वतरोपनिषद, शिव-संहिता, योग-दर्शन, घेरण्ड-संहिता, व हठयोग-प्रदीपिका आदि ग्रन्थों का स्वाध्याय अवश्य कर लेना चाहिए। गीता पाठ तो नित्य करें। हर घर में शिव पूजा और गीता पाठ नित्य होना चाहिए। रामायण और महाभारत हरेक घर में अनिवार्य रूप से होनी चाहिये, जिनका स्वाध्याय सब को करना चाहिये। जो समझ सकते हैं, उन्हें उपनिषदों का स्वाध्याय भी करना चाहिये।
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सारे ग्रंथ इंटरनेट पर उपलब्ध हैं, जिन्हें डाउनलोड कर के प्रिंट भी कर सकते हैं। अनेक प्रकाशन हैं और पुस्तकों की अनेक बड़ी-बड़ी दुकानें हैं, जहाँ सारे ग्रंथ बिक्री के लिए उपलब्ध हैं। निःशुल्क तो कुछ भी नहीं है, हर चीज की कीमत चुकानी पड़ती है। भगवान की कृपा भी तभी होती है जब हम अपने हृदय का प्रेम उन्हें अर्पित करते हैं।
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कुछ लोग कहते हैं कि भगवान का ध्यान करते करते मर गए तो क्या होगा?
इसका उत्तर है कि जो नारकीय जीवन तुम जी रहे हो, उस से तो लाख गुणा अच्छा है कि भगवान की स्मृति में तुम्हारी मृत्यु हो जाये। प्रत्येक आत्मा का स्वधर्म है -- परमात्मा को पाने की अभीप्सा। इस स्वधर्म का पालन करते-करते मृत्यु को प्राप्त होना अनेक जन्मों के पुण्यों का फल है। भगवान कहते हैं --
"श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्। स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः॥३:३५॥"
ॐ तत्सत् !! ॐ ऐं गुरवे नमः !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
११ मई २०२१
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