योग की परम श्रेष्ठ विधि ---
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जिसे हम मनोरंजन कहते हैं, वह भगवान की आज्ञा का उल्लंघन, और नर्क का द्वार है, क्योंकि वह सिर्फ वासनाओं का चिंतन है। गीता में तो भगवान हम से हमारा मन मांगते हैं (यानि मनोनिग्रह का आदेश देते हैं) --
"शनैः शनैरुपरमेद् बुद्ध्या धृतिगृहीतया। आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत् ॥६:२५॥"
अर्थात् -- "शनै: शनै: धैर्ययुक्त बुद्धि के द्वारा (योगी) उपरामता (शांति) को प्राप्त होवे; मन को आत्मा में स्थित करके फिर अन्य कुछ भी चिन्तन न करे॥"
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यही उपासना है और यही साधना है। भाष्यकार भगवान आचार्य शंकर ने इसे --"एष योगस्य परमो विधिः" अर्थात्य "योग की परम श्रेष्ठ विधि" बताया है। वे कहते हैं -- शनैः शनैः अर्थात् सहसा नहीं, क्रम-क्रम से, धैर्ययुक्त बुद्धि द्वारा, उपरति (शांति) को प्राप्त कर, मन को आत्मा में स्थित करके, यानि यह सब कुछ आत्मा ही है, उस से अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है। इस प्रकार मन को आत्मा में अचल करके अन्य किसी भी वस्तु का चिन्तन न करे। यह योगकी परम श्रेष्ठ विधि है।
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कर्ताभाव को त्याग कर, एक निमित्त मात्र बन कर, भगवान को समर्पित होना पड़ेगा, क्योंकि -- "मुमुक्षुत्व और फलार्थित्व" -- दोनों साथ साथ नहीं हो सकते। जब मुमुक्षुत्व जागृत होता है तब शनैः शनैः कर्ताभाव और सब कामनाएँ नष्ट होने लगती हैं। भगवान ने जिसे "आत्मा" कहा है, वह आत्म-तत्व है, जिसे एक ब्रहमनिष्ठ श्रौत्रीय सिद्ध आचार्य ही एक नए साधक को समझा सकता है।
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मैं आप सब का सेवक और आप सब के चरणों की धूल हूँ। आप सब को नमन करता हूँ। ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३१ मई २०२१
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