(पुनर्प्रस्तुत). मैं और मेरे परम मित्र जीसस क्राइस्ट ---
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यह किसी की निंदा या आलोचना नहीं हृदय की एक भावना व अनुभूति मात्र है| मेरी इन पंक्तियों से किसी की भावनाएँ आहत नहीं होनी चाहियें| मैं एक निष्ठावान हिन्दू हूँ पर किशोरावस्था से अब तक मैं जीसस क्राइस्ट का प्रशंसक भी रहा हूँ| जीसस की महिमा में मैंने फेसबुक पर तीन-चार लेख भी लिखे हैं| किशोरावस्था में ही न्यू टेस्टामेंट के सारे उपलब्ध चारों गोस्पेल पढ़ लिए थे, ओल्ड टेस्टामेंट तो बहुत बाद में पढ़ा| पर मैं कभी भी ईसाई पंथ से प्रभावित नहीं हुआ| जिस तरह से ईसाई धर्म-प्रचारकों ने भारत में व समस्त विश्व में छल-कपट वअत्याचार किये उससे मुझे इस पंथ में कोई खूबी दृष्टिगत नहीं हुई| इसे मैं क्रिस्चियनिटी नहीं बल्कि चर्चियनिटी मानता हूँ| पर जीसस से मित्रता बनी रही क्योंकि मेरी दृष्टी में उन्होंने भारत में अध्ययन कर के मूल रूप से सनातन धर्म की शिक्षाओं का ही प्रचार किया था|
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आरम्भ में भारत से जितने भी सन्यासी हिन्दू धर्मप्रचार के लिए अमेरिका गए उन्हें अपनी बात कहने के लिए जीसस क्राइस्ट का सहारा लेना ही पड़ा, अन्यथा वहाँ उनकी बात कोई नहीं सुनता| यह एक तरह की मार्केटिंग थी| ओशो उर्फ़ आचार्य रजनीश ने अमेरिका में पहली बार खुलकर जीसस की आलोचना की तो उन्हें बहुत बुरी तरह अपमानित व प्रताड़ित कर के अमेरिका से भगा दिया गया| किसी भी अन्य देश ने उन्हें शरण नहीं दी, और बाध्य होकर उन्हें बापस भारत लौटना ही पड़ा|
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सन १९८२ ई.में मैंने नीदरलैंड से एक धातु की मूर्ति खरीदी थी जिसमें जीसस क्राइस्ट क्रॉस पर लटके हुए हैं| भारत के कई हिन्दू आश्रमों में भगवान श्री कृष्ण के साथ साथ जीसस क्राइस्ट का चित्र भी आपको पूजा की वेदी पर मिल जाएगा| रामकृष्ण मिशन के आश्रमों में तो माँ काली की मूर्ति के साथ मदर टेरेसा का चित्र लगा देखकर मैं बहुत अधिक आहत भी हुआ हूँ| यह पश्चिमी संस्कृति का भारत पर प्रभाव है|
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लेकिन आजकल मुझे अनुभूत हो रहा है कि जीसस क्राइस्ट एक काल्पनिक चरित्र हैं, जिनको सेंट पॉल नाम के एक पादरी ने परियोजित किया| इनकी कल्पना सेंट पॉल के दिमाग की उपज थी जो बाद में एक राजनीतिक व्यवस्था बन गयी| यूरोप के शासकों ने अपने उपनिवेशों व साम्राज्य का विस्तार करने के लिए ईसाईयत का प्रयोग किया| उनकी सेना का अग्रिम अंग चर्च होता था| रोम के सम्राट कांस्टेंटाइन द ग्रेट ने अपने साम्राज्य के विस्तार के लिए ईसाईयत का सबसे आक्रामक प्रयोग किया| कांस्टेंटिनोपल यानि कुस्तुन्तुनिया उसी ने बसाया था जो आजकल इस्तांबूल के नाम से जाना जाता है| यूरोप का सब से बड़ा धर्मयुद्ध (ईसाइयों व मुसलमानों के मध्य) वहीं लड़ा गया था| कांस्टेंटाइन द ग्रेट एक सूर्योपासक था इसलिए उसी ने रविवार को छुट्टी की व्यवस्था की| उसी ने यह तय किया कि जीसस क्राइस्ट का जन्म २५ दिसंबर को हुआ, क्योंकी उन दिनों उत्तरी गोलार्ध में सबसे छोटा दिन २४ दिसंबर को होता था, और २५ दिसंबर को सबसे पहिला बड़ा दिन होता था| आश्चर्य की बात यह है कि ईसाई पंथ का यह सबसे बड़ा प्रचारक स्वयं ईसाई नहीं बल्कि एक सूर्योपासक था| अपने साम्राज्य के विस्तार के लिए उसने ईसाईयत का उपयोग किया| मृत्यु शैय्या पर जब वह मर रहा था तब पादरियों ने बलात् उसका बपतिस्मा कर के उसे ईसाई बना दिया|
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ये मेरे व्यक्तिगत विचार हैं जिनसे किसी को आहत नहीं होना चाहिए| मुझे तो यही अनुभूत होता है कि जीसस क्राइस्ट का कभी जन्म ही नहीं हुआ था, और उनके बारे में लिखी गयी सारी कथाएँ काल्पनिक हैं| उनके जन्म का कोई प्रमाण नहीं है| यदि वे थे भी तो उनकी मूल शिक्षाएँ भगवान श्रीकृष्ण की ही शिक्षाएँ थीं|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२३ मार्च २०१९
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पुनश्चः :----
जीसस क्राइस्ट के नाम पर ही योरोपीय साम्राज्य विस्तार के लिए वेटिकन के आदेश से वास्कोडिगामा को यूरोप के पूर्व में, और कोलंबस को पश्चिम में भेजा गया था|
यूरोप से गए ईसाईयों ने ही दोनों अमेरिकी महाद्वीपों के प्रायः सभी करोड़ों मनुष्यों की ह्त्या कर के वहाँ योरोपीय लोगों को बसा दिया| वहां के जो बचे-खुचे मूल निवासी थे उन्हें बड़ी भयानक यातनाएँ देकर ईसाई बना दिया गया| कालान्तर में यही काम ऑस्ट्रेलिया व न्यूजीलैंड में किया गया|
ईसाई पुर्तगालियों ने यही काम गोवा में किया| गोवा में यदि कुछ हिन्दू बचे हैं तो वे भगवान की कृपा से ही बचे हैं| ईसाई अंग्रेजों ने भी चाहा था सभी भारतवासियों की ह्त्या कर यहाँ सिर्फ अंग्रेजों को ही बसा देना| पर भगवान की यह भारत पर कृपा थी कि अंग्रेजों को इस कार्य में सफलता नहीं मिली| मुस्लिम शासकों ने अत्याचार करना ईसाई प्रचारकों से ही सीखा| ईसाइयों ने जितने अत्याचार और छल-कपट किया है उतना तो ज्ञात इतिहास में किसी ने भी नहीं किया|
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उपरोक्त लेख पर प्रख्यात वैदिक विद्वान श्री अरुण उपाध्याय की टिप्पणी :---
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"भगवान् कृष्ण के जीवन की कुछ कथाओं की नकल ईसा की कहानी में है। स्वयं कृष्ट (Christ) शब्द कृष्ण का अपभ्रंश है। उत्तरी गोलार्द्ध में मार्गशीर्ष मास में सबसे बड़ी रात होती है अतः इसे कृष्ण-मास कहते थे-मासानां मार्गशीर्षोऽहं (गीता, अध्याय १०)। कृष्णमास से क्रिसमस हुआ है। ४६ ईपू में जूलियस सीजर ने मिस्र के ज्योतिषियों की सलाह पर उत्तरायण आरम्भ से वर्ष आरम्भ करने का आदेश दिया। भारत में उस समय दिव्य दिन का आरम्भ होता है-इसका अनुवाद बड़ा दिन हो गया है। पर स्वयं सीजर के राज्य में लोगों ने उसका आदेश नहीं मान कर विक्रम संवत् १० के पौष मास के आरम्भ से उत्तरायण के ७ दिन बाद वर्ष आरम्भ किया। आदेश के अनुसार जो तिथि १ जनवरी होनी थी वह २५ दिसम्बर हो गयी तथा उसे दिव्य (बड़ा) दिन या कृष्णमास (Christmas) कहा गया। भगवान् कृष्ण द्वारा कंस की मृत्यु की भविष्यवाणी थी, अतः कृष्ण होने के सन्देह में कंस ने ब्रज के सभी नवजात शिशुओं की हत्या करवा दी थी। यही कहानी ईसा मसीह के समय के राजा हेरोद के बारे में बनायी गयी, यद्यपि हेरोद के लिये ऐसा कोई कारण नहीं था। ईसा को जिस समय शूली पर चढ़ाने की कथा है, उस समय वहाँ रोमन शासन था तथा हेरोद की बहुत पहले मृत्यु हो चुकी थी।"
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Note :---
श्री अरुण उपाध्याय जी से परिचय तो फेसबुक पर ही हुआ था, पर इन से सबसे पहली व्यक्तिगत भेंट जोधपुर के शंकराचार्य मठ (जो कांची कामकोटी पीठ से जुड़ा हुआ है) में हुई थी जहाँ हम दोनों ही दंडी स्वामी मृगेंद्र सरस्वती जी से मिलने आये हुए थे| इनसे दूसरी भेंट भुवनेश्वर में इनके निवास पर ही हुई| उस दिन वहाँ एक हड़ताल थी जिसके कारण कोई भी वाहन सड़क पर नहीं चल रहा था| पर भुवनेश्वर के एक युवा उद्योगपति श्री विवेक टीबड़ेवाल अपनी कार में कैसे भी जोखिम लेकर मुझे इनके घर तक छोड़ आये| बापस आने के लिए इन्होनें व्यवस्था कर दी थी| लगभग डेढ़ घंटों तक इनसे हुई वार्ता बहुत अधिक लाभदायी थी| इनसे हुई उपरोक्त दोनों भेंटों को मैं एक उपलब्धि मानता हूँ|
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