Thursday, 15 July 2021

भगवती छिन्नमस्ता ---

 भगवती छिन्नमस्ता ---

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आज पता नहीं क्यों भगवती छिन्नमस्ता अपनी परम कृपा करते हुए मुझे बार-बार याद आ रही हैं। मेरी चेतना में वे ही छाई हुई हैं। लगता है इसके पीछे कोई न कोई रहस्य है। मैं तो उनका बालक हूँ, वे जो भी काम मुझ अकिंचन से लेना चाहें वह लें, मैं तो एक निमित्त मात्र हूँ। उन का विग्रह बड़ा ही आकर्षक और प्रिय है, जिसे समझने वाले ही समझते हैं। वे स्वयं ही अपने आप आकर मुझ अकिंचन पर अपनी कृपा वर्षा कर रही हैं। उन की महिमा अपार है, जिसका वर्णन करने की सामर्थ्य मुझ अकिंचन में नहीं है। फिर भी अपनी अति अल्प और अति सीमित बुद्धि से प्रयास करता हूँ। कोई त्रुटि हो तो भगवती मुझे क्षमा करें। हे भगवती, तुम्हारी जय हो!!
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भगवती छिन्नमस्ता ने कामदेव और उनकी कामासक्ता धर्मपत्नी रति को एक बड़े पद्म (कमल के फूल) में लिटा रखा है, और दंडायमान होकर उन पर वीर-मुद्रा में खड़ी हैं। भगवती के देह की प्रभा करोड़ों सूर्यों के समान है, लेकिन वे परम मंगलमयी हैं। जो वीर साधक वासनाओं पर विजय पा सकता है, वह ही भगवती की साधना कर सकता है। भगवती के साधक के आसपास किसी तरह की कोई सांसारिक वासना आ भी नहीं सकती, क्योंकि वे परम वैराग्य प्रदान करती हैं।
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वे दिगंबरा हैं, दशों-दिशाएँ उनके वस्त्र हैं। वे सर्वव्यापी हैं। उनके मस्तक में सर्पाबद्ध मणि है, तीन नेत्र हैं और वक्ष स्थल पर कमल की माला है। उनके देह की कान्ति जावा पुष्प की तरह रक्तवर्णा है। उनके दाहिने हाथ में खड़ग है, जिस से उन्होने अपना स्वयं का सिर काट कर बाएँ हाथ में ले रखा है, जिस का मुंह ऊपर की ओर है। अपने साधक का सारा अहंकार भी वे इसी तरह नष्ट कर के उसकी चेतना को ऊर्ध्वमुखी कर देती हैं। वे वेदान्त की मूर्ति हैं।
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उनके धड़ से शोणित की तीन धाराएँ निकल रही हैं। बीच की रुधिर धारा ज्ञान की धारा है, जो सुषुम्ना नाड़ी में जागृत कुंडलिनी महाशक्ति की प्रतीक है। अहंभाव से मुक्त होने पर ही कुंडलिनी, आज्ञाचक्र का भेदन कर सहस्त्रार में प्रवेश करती है। इस ज्ञानधारा का पान वे स्वयं कर रही हैं। यह बताता है कि अपने साधक को वे परमशिव भाव में स्थित कर ही देती हैं।
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बाईं ओर से निकलती हुई रुधिर की धारा, बल की धारा है, जो खंग-खप्पर धारिणी, मायारूपी, कृष्णवर्णा, अति बलशाली, अज्ञसेविका सखी डाकिनी महाशक्ति के मुँह में गिर रही है जो प्रलय काल के समान सम्पूर्ण जगत् का भक्षण करने में समर्थ है, लेकिन ज्ञानशून्य है। इसके तीनों नेत्र बिजली के समान चंचल हैं, हृदय में सर्प विराजमान है, और अत्यधिक भयानक स्वरूप है।
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दाहिनी ओर से निकलती रक्त की धारा क्रिया रूपी है, जो देवी के दाहिने भाग में खड़ी श्वेतवर्णा, खुले केश, कैंची और खप्पर धारण किये, विद्या-साधिका वर्णिनी महाशक्ति के मुँह में गिरती है। यह सखी बड़े उच्च स्तर की साधिका है, जिनके मस्तक में नागमणि सुशोभित है।
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काली, तारा, छिन्नमस्ता, षोडशी, भुवनेश्वरी, त्रिपुर भैरवी, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी व कमला --- इन देवियों को दस महाविद्या कहा जाता हैं। इनका संबंध भगवान विष्णु के दस अवतारों से हैं। जैसे भगवान श्रीराम की शक्ति तारा है, भगवान श्रीकृष्ण की शक्ति काली है, वैसे ही भगवान नृसिंह की शक्ति छिन्नमस्ता है। भगवती छिन्नमस्ता और भगवान नृसिंह के बीजमंत्र भी एक हैं।
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जहाँ तक मुझे पता है, भगवती छिन्नमस्ता के मुख्यतः दो ही मंदिर भारत में हैं -- एक तो झारखंड में रामगढ़ के पास राजरप्पा में है, दूसरा हिमाचल प्रदेश के ऊना जिले का प्रसिद्ध चिंत्यपूर्णी मंदिर है।
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दसों महाविद्याओं की उत्पत्ति पंचप्राणों (प्राण, अपान, समान, व्यान और उदान) से होती है। पंचप्राणों के पाँच सौम्य और पाँच उग्र रूप ही दस महाविद्याएँ हैं| ये पंचप्राण ही गणपति गणेश जी के गण हैं, जिनके अधिपती ओंकार रूप में गणपति गणेश जी स्वयं हैं।
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तिब्बत का वज्रयान बौद्धमत -- भगवती छिन्नमस्ता की ही साधना है| वज्रयान का साधना मंत्र है --- "ॐ मणिपद्मे हुं"। "ॐ" -- तो परमात्मा का वाचक है। "हुं" -- भगवती छिन्नमस्ता का बीज मंत्र है। "मणिपद्मे" का अर्थ है --- जो देवी, मणिपुर चक्र के पद्म में निवास करती हैं। अतः "ॐ मणिपद्मे हुं" का अर्थ हुआ -- मैं मणिपुर चक्र के पद्म में स्थित छिन्नमस्ता देवी को नमन करता हूँ। मणिपुर पद्म में ही उनका निवास है। भगवती छिन्नमस्ता सुषुम्ना नाड़ी की उपनाड़ी "वज्रा" में विचरण करती हैं, इसलिए उनके अनुयायी तिब्बत के लामाओं का मत "वज्रयान" कहलाता है। वज्रयान मत के लामा चिंत्यपूर्णि मंदिर में आराधना के लिए खूब आते हैं।
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सुषुम्ना नाड़ी में चित्रा, वज्रा, और ब्राह्मी उपनाड़ियों का रहस्य यह है कि कुंडलिनी महाशक्ति जागृत होकर यदि सुषुम्ना की उपनाड़ी ब्राह्मी में प्रवेश करती हैं तो ब्रह्मज्ञान प्राप्त होता है, वज्रा में सारी सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं, और चित्रा में ब्रह्मज्ञान और सिद्धियों के अतिरिक्त अन्य सब कुछ प्राप्त हो जाता है। यह एक गोपनीय विद्या है जिसकी चर्चा सार्वजनिक रूप से करने का निषेध है।
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गुरु गोरखनाथ ने सारी सिद्धियाँ भगवती छिन्नमस्ता से प्राप्त की थीं। अपने एक ग्रंथ (गोरक्ष-पद्धति या गोरक्ष संहिता) )के द्वितीय अध्याय के आरंभ में गुरु गोरखनाथ ने माँ छिन्नमस्ता की बड़ी सुंदर स्तुति लिखी है। छिन्नमस्ता की साधना वैदिक काल से ही है। वैदिक काल में इस साधना का नाम दूसरा था। कभी विस्तार से लिखने कि आज्ञा मिली तब ही और लिख पाऊँगा, अभी तो इतना ही लिखने का आदेश है। ॐ तत्सत् !!
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मैं भगवती छिन्नमस्ता को बारंबार प्रणाम करता हूँ, जिनकी परम कृपा मुझे परमशिव भाव में स्थित कर रही है। भगवती की परम कृपा बनी रहे, और अन्य कुछ भी नहीं चाहिए।
"ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं वज्रवैरोचनीये हुं हुं फट् स्वाहा॥"
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कृपा शंकर
१० मई २०२१

2 comments:

  1. भूल सुधार :-- कल मैंने भगवती छिन्नमस्ता पर लेख लिखा था, जिसमें सुषुम्ना की ब्राह्मी, वज्रा, और चित्रा -- उपनाड़ियों के बारे में लिखा था। गुजरात से मेरे एक शुभचिंतक मित्र ने, जो एक बहुत बड़े गृहस्थ योगी और ज्ञानी उपासक हैं, ने मेरे से संपर्क कर के शास्त्रों के संदर्भ से इन उप नाड़ियों की सही स्थिति और उद्देश्य बता कर मेरी भूल का सुधार किया है।
    मूलाधार से सहस्त्रार तक सुषुम्ना है, जिसके भीतर मणिपुर से वज्रा नाड़ी आरंभ होती है, जिसमें प्रवेश वज्र की तरह अति कठोर होता है। इसलिए उसे वज्रा कहते हैं। वज्रा के भीतर चित्रा है जो चित्रगुप्त का कार्य करती है। उसमें हमारे जन्म-जन्मांतरों के सारे गुप्त चित्र रहते हैं। इसलिए यह चित्रा है। उसके भी भीतर और ऊपर जाकर ब्राह्मी उपनाड़ी है, जिसमें कुंडलिनी प्रवेश करती है तब ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति होती है।

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  2. मैं अपने ज्ञान रूपी खड़ग से अपने अहंकार रूपी मस्तक को काट कर, वेदान्त की अधिष्ठात्री देवी भगवती माँ छिन्नमस्ता के चरणों में अर्पित करता हूँ। हे माता, इस अहंकार के साथ-साथ मेरे मन, बुद्धि और चित्त को भी स्वीकार करो। परम-शिवभाव में स्थित होने की मेरी अभीप्सा को पूर्ण करो। किसी भी कामना का कभी जन्म न हो।

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