जिन की अनुकंपा से हम चैतन्य हैं, और जिन के प्रकाश से हमें स्वयं के होने का बोध है, वे ही हमारे परमप्रिय परमात्मा हैं, जिन का प्रेम हमें निरंतर मिल रहा है। हम उन को अपने हृदय का सर्वश्रेष्ठ प्रेम दें, और उन की चेतना में आनंदमय रहें। परमप्रेम हमारा स्वभाव है, और आनंद उसकी परिणिती। मानसिक भावुकता से ऊपर उठें, और जब भी समय मिले, कूटस्थ सूर्यमण्डल में पुरुषोत्तम का ध्यान करते हुए आध्यात्म की परावस्था में रहें। हमारी हर सांस उनके प्रति समर्पित हो।
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परमात्मा की अनंतता हमारी देह है, और समस्त सृष्टि हमारा परिवार। यह संपूर्णता व विराटता -- भूमा-वासना है, जो सदा बनी रहे।
जो हम ढूँढ़ रहे हैं या जो हम पाना चाहते हैं, वह तो हम स्वयं हैं, -- यह वेदान्त-वासना है।
हम अनन्य हैं, हमारे से अन्य कोई नहीं है। यह -- अनन्य-योग है।
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गहराई में जाने के लिए वेदान्त के दृष्टिकोण से विचार कीजिए। भगवान कहते हैं --
"अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥९:२२॥"
अर्थात् अनन्य भाव से मेरा चिन्तन करते हुए जो भक्तजन मेरी ही उपासना करते हैं, उन नित्ययुक्त पुरुषों का योगक्षेम मैं वहन करता हूँ।
"अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः॥९:३०॥"
अर्थात् अगर कोई दुराचारी-से-दुराचारी भी अनन्यभाव से मेरा भजन करता है, तो उसको साधु ही मानना चाहिये। कारण कि उसने निश्चय बहुत अच्छी तरह कर लिया है।
क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।
कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति॥९:३१॥"
अर्थात् हे कौन्तेय, वह शीघ्र ही धर्मात्मा बन जाता है और शाश्वत शान्ति को प्राप्त होता है| तुम निश्चयपूर्वक सत्य जानो कि मेरा भक्त कभी नष्ट नहीं होता||
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परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति आप सब को नमन !! ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
६ मई २०२१
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