हृदय की एक अभीप्सा जो अवश्य ही पूर्ण होगी :-----
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कोई भी कैसी भी कामना या कल्पना हो, वह कभी पूर्ण नहीं हो सकती| कभी न कभी तो हमें संतोष करना ही पड़ता है| अतः संतोष अभी से कर लें तो अच्छा रहेगा| हमारा वास्तविक अद्वय और अलेपक रूप परमशिव है, जिसे हम कभी नहीं भूलें| हम अबद्ध, नित्यमुक्त और परमात्मा के दिव्य अमृतपुत्र हैं| हमारे सारे बंधन, हमारी स्वयं की भूलवश की गयी रचनायें हैं, परमात्मा की नहीं| मन को बहलाने के लिए झूठे स्वप्न न देखें| हम नित्यमुक्त हैं|
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गीता का सर्वप्रथम उपदेश इस जीवन में जिन विद्वान आचार्य से मैंने सुना, उन्होने सब से पहिले क्षर-अक्षर योग का ही उपदेश दिया था .....
"द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च| क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते||१५:१६||"
अर्थात् इस लोक में क्षर (नश्वर) और अक्षर (अनश्वर) ये दो पुरुष हैं| समस्त भूत क्षर हैं और कूटस्थ अक्षर कहलाता है||
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यह "कूटस्थ" शब्द मुझे बहुत प्यारा लगता है| मेरे लिए गीता का उद्देश्य उन कुटस्थ अक्षर पुरुष को समझना और समर्पित होकर उनको उपलब्ध होना ही समझ में आया है| वे कुटस्थ अक्षर पुरुष स्वयं भगवान वासुदेव हैं| मेरे लिये यही ज्ञान है और यही भक्ति है| बाकी मुझे कुछ नहीं पता|
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क्षरण का अर्थ है झरना| उदाहरण के लिये किसी घड़े में पानी भरो तो धीरे धीरे झरता रहता है| घड़े को भरकर रख दें, तीन दिन बाद देखने पर घड़ा आधा खाली मिलेगा| उसमें से पानी झरता रहता है, इसलिए तत्काल पता नहीं चलता| ऐसे ही हमारा यह शरीर, और संसार के हर पदार्थ धीरे धीरे क्षर रहे हैं| सिर्फ कुटस्थ परमात्मा ही अक्षर हैं| वे कुटस्थ अक्षर ब्रह्म हैं| हम उनके साथ जुड़ें, उनके साथ एक हों| जहाँ तक मुझे समझ में आया है यही गीता का सही उपदेश है| हमारी शत्रु यह मायावी आशा/तृष्णा नाम की पिशाचिनी है, जो सदा भ्रमित करती रहती है| इब्राहिमी मज़हबों में इसे ही शैतान का नाम दिया है| इस पिशाचिनी से बचें|
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अभी मेरी आयु बहत्तर वर्ष की हो गई है| अभी भी यदि आशा-तृष्णा नहीं मिटी तो फिर कभी भी नहीं मिटेगी| अभी भी मन तृप्त नहीं हुआ तो दस-बीस साल जी कर भी तृप्त नहीं होगा| इस शरीर का क्षरण हो रहा है, साथ साथ बुद्धि और स्मृति का भी| कोई कार्य-कुशलता नहीं रही है| कुछ भी काम ठीक से नहीं होता| अतः अब सब तरह की आशा/तृष्णा और वासनाओं से मुक्त होकर परमात्मा को ही इस देह और अन्तःकरण में प्रवाहित होने दूँ, यही सर्वोचित होगा|
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परमात्मा जब इस हृदय में धड़कना बंद कर दें, और चेतना जब ब्रह्मरंध्र से निकल कर परमशिव से संयुक्त हो जाये, उस से पूर्व ही सचेतन रूप से यह जीवात्मा सदाशिवमय हो जाये, इतनी तो गुरुकृपा और हरिःकृपा अवश्य ही होगी| मैं अपने उस वास्तविक अमूर्त स्वरूप को प्राप्त करूँ जो क्षर और अक्षर से भी परे है|
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ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१३ सितंबर २०१९
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कोई भी कैसी भी कामना या कल्पना हो, वह कभी पूर्ण नहीं हो सकती| कभी न कभी तो हमें संतोष करना ही पड़ता है| अतः संतोष अभी से कर लें तो अच्छा रहेगा| हमारा वास्तविक अद्वय और अलेपक रूप परमशिव है, जिसे हम कभी नहीं भूलें| हम अबद्ध, नित्यमुक्त और परमात्मा के दिव्य अमृतपुत्र हैं| हमारे सारे बंधन, हमारी स्वयं की भूलवश की गयी रचनायें हैं, परमात्मा की नहीं| मन को बहलाने के लिए झूठे स्वप्न न देखें| हम नित्यमुक्त हैं|
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गीता का सर्वप्रथम उपदेश इस जीवन में जिन विद्वान आचार्य से मैंने सुना, उन्होने सब से पहिले क्षर-अक्षर योग का ही उपदेश दिया था .....
"द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च| क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते||१५:१६||"
अर्थात् इस लोक में क्षर (नश्वर) और अक्षर (अनश्वर) ये दो पुरुष हैं| समस्त भूत क्षर हैं और कूटस्थ अक्षर कहलाता है||
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यह "कूटस्थ" शब्द मुझे बहुत प्यारा लगता है| मेरे लिए गीता का उद्देश्य उन कुटस्थ अक्षर पुरुष को समझना और समर्पित होकर उनको उपलब्ध होना ही समझ में आया है| वे कुटस्थ अक्षर पुरुष स्वयं भगवान वासुदेव हैं| मेरे लिये यही ज्ञान है और यही भक्ति है| बाकी मुझे कुछ नहीं पता|
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क्षरण का अर्थ है झरना| उदाहरण के लिये किसी घड़े में पानी भरो तो धीरे धीरे झरता रहता है| घड़े को भरकर रख दें, तीन दिन बाद देखने पर घड़ा आधा खाली मिलेगा| उसमें से पानी झरता रहता है, इसलिए तत्काल पता नहीं चलता| ऐसे ही हमारा यह शरीर, और संसार के हर पदार्थ धीरे धीरे क्षर रहे हैं| सिर्फ कुटस्थ परमात्मा ही अक्षर हैं| वे कुटस्थ अक्षर ब्रह्म हैं| हम उनके साथ जुड़ें, उनके साथ एक हों| जहाँ तक मुझे समझ में आया है यही गीता का सही उपदेश है| हमारी शत्रु यह मायावी आशा/तृष्णा नाम की पिशाचिनी है, जो सदा भ्रमित करती रहती है| इब्राहिमी मज़हबों में इसे ही शैतान का नाम दिया है| इस पिशाचिनी से बचें|
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अभी मेरी आयु बहत्तर वर्ष की हो गई है| अभी भी यदि आशा-तृष्णा नहीं मिटी तो फिर कभी भी नहीं मिटेगी| अभी भी मन तृप्त नहीं हुआ तो दस-बीस साल जी कर भी तृप्त नहीं होगा| इस शरीर का क्षरण हो रहा है, साथ साथ बुद्धि और स्मृति का भी| कोई कार्य-कुशलता नहीं रही है| कुछ भी काम ठीक से नहीं होता| अतः अब सब तरह की आशा/तृष्णा और वासनाओं से मुक्त होकर परमात्मा को ही इस देह और अन्तःकरण में प्रवाहित होने दूँ, यही सर्वोचित होगा|
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परमात्मा जब इस हृदय में धड़कना बंद कर दें, और चेतना जब ब्रह्मरंध्र से निकल कर परमशिव से संयुक्त हो जाये, उस से पूर्व ही सचेतन रूप से यह जीवात्मा सदाशिवमय हो जाये, इतनी तो गुरुकृपा और हरिःकृपा अवश्य ही होगी| मैं अपने उस वास्तविक अमूर्त स्वरूप को प्राप्त करूँ जो क्षर और अक्षर से भी परे है|
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ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१३ सितंबर २०१९
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