चित्त की विभिन्न अवस्थाएँ और योगसाधना का निषेध ....
.
सनातन धर्म के अतिधन्य आचार्यों ने चित्त के स्वरूप को समझते हुए चित्त की पाँच अवस्थाएँ बताई हैं..... (१) क्षिप्त, (२) मूढ़, (३) विक्षिप्त, (४) एकाग्र और (५) निरुद्ध|
प्रथम तीन अवस्थाओं में योगसाधना का निषेध है| योगसाधना सिर्फ अंतिम दो अवस्था वालों के लिए ही है| कुछ सूक्ष्म प्राणायाम, धारणायें और ध्यान सिर्फ उन्हीं को बताए जाते हैं, और सिद्ध भी उन्हीं को होते हैं जिनका आचार-विचार शुद्ध हो व जो यम-नियमों का पालन करने में समर्थ हों| देवत्व उन्हीं में व्यक्त हो सकता है|
.
जो क्षिप्त, मूढ़ और विक्षिप्त चित्त वाले हैं, उनके लिए योग मार्ग का निषेध है| ऐसे चित्त वालों को साधना के रहस्य नहीं बताए जाते| वे दुराचारी यदि साधना करेंगे भी तो उन पर आसुरी जगत अपना अधिकार कर लेगा और वे घोर असुर बन जाएँगे| यह बात स्वामी विवेकानंद ने अपने प्रवचनों में बड़े स्पष्ट रूप से कही है| मैं इस विषय की गहराई में नहीं जा रहा हूँ क्योकि यह बड़ा स्पष्ट है| क्षिप्त अवस्था में मनुष्य सदा तनावग्रस्त रहता है| मूढ़ावस्था में वह विवेकहीन हो जाता है| उसे अच्छे-बुरे का ज्ञान नहीं रहता| विक्षिप्त अवस्था में उसका चित्त स्थिर नहीं हो सकता, वह डांवाडोल रहता है| ऐसे लोग कभी एकाग्र नहीं हो सकते अतः उन के लिए योगसाधना का निषेध है| वे प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान आदि का अभ्यास करेंगे भी तो उनमें आसुरी भाव ही प्रकट होगा और वे आसुरी शक्तियों के शिकार हो जाएँगे| ऐसे व्यक्ति मनुष्यता की सिर्फ हानि ही कर सकते हैं, कोई लाभ नहीं|
.
गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं .....
"यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः| हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः||१२:१५||"
अर्थात जिससे कोई लोक (अर्थात् जीव, व्यक्ति) उद्वेग को प्राप्त नहीं होता और जो स्वयं भी किसी व्यक्ति से उद्वेग अनुभव नहीं करता तथा जो हर्ष, अमर्ष (असहिष्णुता), भय और उद्वेगों से मुक्त है, वह भक्त मुझे प्रिय है||
.
सनातन धर्म के अतिधन्य आचार्यों ने चित्त के स्वरूप को समझते हुए चित्त की पाँच अवस्थाएँ बताई हैं..... (१) क्षिप्त, (२) मूढ़, (३) विक्षिप्त, (४) एकाग्र और (५) निरुद्ध|
प्रथम तीन अवस्थाओं में योगसाधना का निषेध है| योगसाधना सिर्फ अंतिम दो अवस्था वालों के लिए ही है| कुछ सूक्ष्म प्राणायाम, धारणायें और ध्यान सिर्फ उन्हीं को बताए जाते हैं, और सिद्ध भी उन्हीं को होते हैं जिनका आचार-विचार शुद्ध हो व जो यम-नियमों का पालन करने में समर्थ हों| देवत्व उन्हीं में व्यक्त हो सकता है|
.
जो क्षिप्त, मूढ़ और विक्षिप्त चित्त वाले हैं, उनके लिए योग मार्ग का निषेध है| ऐसे चित्त वालों को साधना के रहस्य नहीं बताए जाते| वे दुराचारी यदि साधना करेंगे भी तो उन पर आसुरी जगत अपना अधिकार कर लेगा और वे घोर असुर बन जाएँगे| यह बात स्वामी विवेकानंद ने अपने प्रवचनों में बड़े स्पष्ट रूप से कही है| मैं इस विषय की गहराई में नहीं जा रहा हूँ क्योकि यह बड़ा स्पष्ट है| क्षिप्त अवस्था में मनुष्य सदा तनावग्रस्त रहता है| मूढ़ावस्था में वह विवेकहीन हो जाता है| उसे अच्छे-बुरे का ज्ञान नहीं रहता| विक्षिप्त अवस्था में उसका चित्त स्थिर नहीं हो सकता, वह डांवाडोल रहता है| ऐसे लोग कभी एकाग्र नहीं हो सकते अतः उन के लिए योगसाधना का निषेध है| वे प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान आदि का अभ्यास करेंगे भी तो उनमें आसुरी भाव ही प्रकट होगा और वे आसुरी शक्तियों के शिकार हो जाएँगे| ऐसे व्यक्ति मनुष्यता की सिर्फ हानि ही कर सकते हैं, कोई लाभ नहीं|
.
गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं .....
"यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः| हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो यः स च मे प्रियः||१२:१५||"
अर्थात जिससे कोई लोक (अर्थात् जीव, व्यक्ति) उद्वेग को प्राप्त नहीं होता और जो स्वयं भी किसी व्यक्ति से उद्वेग अनुभव नहीं करता तथा जो हर्ष, अमर्ष (असहिष्णुता), भय और उद्वेगों से मुक्त है, वह भक्त मुझे प्रिय है||
जिस से संसार उद्वेग को प्राप्त नहीं होता अर्थात् संतप्त -- क्षुब्ध नहीं
होता और जो स्वयं भी संसार से उद्वेगयुक्त नहीं होता; जो हर्ष, अमर्ष, भय
और उद्वेग से रहित है (प्रिय वस्तु के लाभ से अन्तःकरण में जो उत्साह होता
है, रोमाञ्च और अश्रुपात आदि जिसके चिह्न हैं उसका नाम हर्ष है|
असहिष्णुता को अमर्ष कहते हैं| त्रास का नाम भय है, और उद्विग्नता ही
उद्वेग है|) वह मुझे प्रिय है|
.
भगवान वासुदेव सब का कल्याण करें| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय |
ॐ तत्सत ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२१ सितंबर २०१९
.
भगवान वासुदेव सब का कल्याण करें| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय |
ॐ तत्सत ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२१ सितंबर २०१९
No comments:
Post a Comment