Thursday, 17 October 2019

"अंत मति सो गति" यानि "अंत भला तो सब भला" :--

"अंत मति सो गति" यानि "अंत भला तो सब भला" :--
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यह एक बहुत गंभीर लेख है जिसका सभी के जीवन से संबंध है, इसे हंसी-मज़ाक में न उड़ायें| भगवद्गीता के अध्याय ८ अक्षरब्रह्मयोग में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं .....
"प्रयाणकाले मनसाऽचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव |
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम् ||८:१०||"
अर्थात मृत्युकाल में भक्ति और योगबल से युक्त होकर अचल मन से भ्रुकुटि के मध्य में प्राणों को स्थापित कर के अपने परमात्मस्वरूप का चिन्तन करता हुआ जो व्यक्ति अपनी देह का त्याग करता है वह उस चेतनात्मक परम पुरुषको प्राप्त होता है|
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इससे पूर्व वे कहते हैं .....
"अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम् |
यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः ||८:५||"
अर्थात जो पुरुष अंतकाल में भी मुझको ही स्मरण करता हुआ शरीर को त्याग कर जाता है, वह मेरे साक्षात स्वरूप को प्राप्त होता है- इसमें कुछ भी संशय नहीं है||
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भगवान फिर कहते हैं .....
"सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च |
मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम् ||८:१२||"
"ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन् |
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम् ||८:१३||"
अर्थात सब इंद्रियों के द्वारों को रोककर तथा मन को हृद्देश में स्थिर करके, फिर उस जीते हुए मन द्वारा प्राण को मस्तक में स्थापित करके, परमात्म संबंधी योगधारणा में स्थित होकर जो पुरुष 'ॐ' इस एक अक्षर रूप ब्रह्म को उच्चारण करता हुआ और उसके अर्थस्वरूप मुझ निर्गुण ब्रह्म का चिंतन करता हुआ शरीर को त्यागकर जाता है, वह पुरुष परम गति को प्राप्त होता है||
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भगवान आगे कहते हैं .....
"आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन |
मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते ||८:१६||"
अर्थात .... हे अर्जुन! ब्रह्मलोकपर्यंत सब लोक पुनरावर्ती हैं, परन्तु हे कुन्तीपुत्र! मुझको प्राप्त होकर पुनर्जन्म नहीं होता, क्योंकि मैं कालातीत हूँ और ये सब ब्रह्मादि के लोक काल द्वारा सीमित होने से अनित्य हैं||
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इतना बड़ा ज्ञान भगवान ने स्वयं अपने श्रीमुख से दिया है, जो इतना अधिक सुलभ और सहज है, फिर भी यदि हम उस पर ध्यान न दें तो हम से बड़ा अभागा और कौन है?
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इसके लिए जब भी पता चले और प्रेरणा मिले उसी समय से अभ्यास में जुट जाना चाहिए| यदि कोई यह सोचता है कि जीवन भर तो मौज-मस्ती करेंगे और अंत समय में भगवान का ध्यान कर लेंगे तो वे ऐसा कभी नहीं कर पायेंगे|
भगवान ने "भक्त्या युक्तः" शब्द का प्रयोग किया है, अर्थात भक्ति से युक्त होकर| भक्तिसूत्रों के अनुसार भक्ति का अर्थ होता है "परमप्रेम"| परमप्रेम सिर्फ परमात्मा से ही हो सकता है|
भगवान ने फिर "योगबल" शब्द का भी प्रयोग किया है| योगबल भी नियमित अभ्यास से ही सिद्ध होता है|
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इस से आगे का और यहाँ तक का ज्ञान भी भगवान की परमकृपा से ही हो सकता है|
"यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति| तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति||६:३०||
अर्थात जो सबमें मुझको देखता है और सबको मुझमें देखता है उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता|
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आप सब में तो मुझे सर्वव्यापी भगवान वासुदेव के ही दर्शन होते हैं| आप सब में भगवान वासुदेव को नमन!
ॐ तत्सत ! ॐ नमो भगवाते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१८ सितंबर २०१९

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