भोजन एक उपासना और यज्ञ है जिसमें हर ग्रास परमात्मा को दी हुई आहुति है .....
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भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं .....
"अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः| प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम्||१५:१४||"
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हम जो कुछ भी खाते हैं वह भगवान को अर्पित कर के ही खाना चाहिए| हमारे द्वारा खाए हुए भोजन के हर ग्रास को भगवान स्वयं वैश्वानर के रूप में ग्रहण करते हैं, जिस से समस्त सृष्टि का भरण-पोषण होता है| भगवान को अर्पित नहीं कर के खाने वाला पापों का भक्षण करता है| भोजन में पूरी पवित्रता होनी चाहिए| शुद्ध आसन पर बैठकर भोजन करें| तुलसीदल उपलब्ध हो तो उसे भोजन पर अवश्य रखें|
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रसोई घर में भोजन बनाकर गृहिणी द्वारा तीन बार नमक रहित तीन छोटे छोटे ग्रासों से अग्नि को जिमाना चाहिए| यदि संभव हो तो मानसिक रूप से अग्नि को जिमाते समय ये मंत्र भी बोले ... (१) ॐ भूपतये स्वाहा, (२) ॐ भुवनपतये स्वाहा, (३) ॐ भूतानां पतये स्वाहा|
पहली तीन रोटियाँ गाय, कुत्ते और कौवे हेतु निकाल कर अलग से रख लें| आजकल कौवे तो दुर्लभ या लुप्त हो गए हैं|
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हम भोजन को एक यज्ञ समझें| यज्ञ में जैसे आहुतियाँ दी जाती हैं, वैसे ही मुख में डाले एक-एक अन्न के ग्रास को आहुति समझकर डालें| आहुति यज्ञ-कुण्ड में नहीं पड़ी रहतीं, बल्कि सूक्ष्म होकर सारी सृष्टि में फैल जाती हैं| भोजन से पूर्व गीता में दिए निम्न मंत्र का मानसिक पाठ करें ...
"ब्रह्मार्पणं ब्रह्महविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्| ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना||४:२४||
अर्थात अर्पण करने का साधन श्रुवा ब्रह्म है और हवि शाकल्य अथवा हवन करने योग्य द्रव्य भी ब्रह्म है ब्रह्मरूप अग्नि में ब्रह्मरूप कर्ता के द्वारा जो हवन किया गया है वह भी ब्रह्म ही है| इस प्रकार ब्रह्मरूप कर्म में समाधिस्थ पुरुष का गन्तव्य भी ब्रह्म ही है||
यदि हो सके तो मानसिक रूप से शांति पाठ भी करें .....
"ॐ सहनाववतु | सह नौ भुनक्तु | सह वीर्यं करवावहै | तेजस्वि नावधीतमस्तु | मा विद्विषावहै || ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ||"
फिर भोजन-यज्ञ आरंभ करें| यदि संभव हो तो भोजन के प्रथम ग्रास के साथ ... "ॐ प्राणाय स्वाहा" मंत्र का मानसिक पाठ अवश्य करें| श्रद्धालु जन तो प्रथम पाँच ग्रासों के साथ क्रमशः निम्न मंत्रों का मानसिक पाठ करते हैं... ॐ प्राणाय स्वाहा, ॐ व्यानाय स्वाहा, ॐ अपानाय स्वाहा, ॐ समानाय स्वाहा, ॐ उदानाय स्वाहा ||
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जो अन्नपूर्णा के साधक हैं वे तो भोजन से पूर्व भगवती अन्नपूर्णा से मानसिक रूप से इस अन्नपूर्णा मंत्र के साथ भिक्षा मांग कर खाते हैं ...
"ॐ अन्नपूर्णे सदापूर्णे शंकर प्राण वल्लभे| ज्ञान वैराग्य सिध्यर्थं भिक्षां देहि च पार्वति||"
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भोजन से पूर्व इस मन्त्र से आचमन करें :-- "ॐ अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा" | भोजन के पश्चात् इस मन्त्र से आचमन करें :--
"ॐ अमृतापिधानमसि स्वाहा" |
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और भी थोड़ा बहुत परिवर्तन स्थान स्थान पर है, पर मूलभूत बात यही है कि जो भी हम खाते हैं वह हम नहीं खाते हैं, बल्कि साक्षात् परमात्मा को ही अर्पित करते हैं| उपरोक्त विधि एक यज्ञ है जिसके लिए परिश्रम तो करना ही पड़ता है|
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भगवान को जो प्रिय है वही खाना चाहिए| भगवान को क्या प्रिय हो सकता है? इसका निर्णय अपने विवेक से करें| भगवान तो पत्र, पुष्प और फल भी खा लेते हैं .....
"पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति| तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः||९:२६||
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आप सब महान आत्माओं को मेरा प्रणाम ! आप सब परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्तियाँ हैं| आप सब में मुझे परमात्मा के दर्शन होते हैं|
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ तत्सत ! ॐ ॐ ॐ !!
१९ सितंबर २०१९
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भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं .....
"अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः| प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम्||१५:१४||"
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हम जो कुछ भी खाते हैं वह भगवान को अर्पित कर के ही खाना चाहिए| हमारे द्वारा खाए हुए भोजन के हर ग्रास को भगवान स्वयं वैश्वानर के रूप में ग्रहण करते हैं, जिस से समस्त सृष्टि का भरण-पोषण होता है| भगवान को अर्पित नहीं कर के खाने वाला पापों का भक्षण करता है| भोजन में पूरी पवित्रता होनी चाहिए| शुद्ध आसन पर बैठकर भोजन करें| तुलसीदल उपलब्ध हो तो उसे भोजन पर अवश्य रखें|
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रसोई घर में भोजन बनाकर गृहिणी द्वारा तीन बार नमक रहित तीन छोटे छोटे ग्रासों से अग्नि को जिमाना चाहिए| यदि संभव हो तो मानसिक रूप से अग्नि को जिमाते समय ये मंत्र भी बोले ... (१) ॐ भूपतये स्वाहा, (२) ॐ भुवनपतये स्वाहा, (३) ॐ भूतानां पतये स्वाहा|
पहली तीन रोटियाँ गाय, कुत्ते और कौवे हेतु निकाल कर अलग से रख लें| आजकल कौवे तो दुर्लभ या लुप्त हो गए हैं|
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हम भोजन को एक यज्ञ समझें| यज्ञ में जैसे आहुतियाँ दी जाती हैं, वैसे ही मुख में डाले एक-एक अन्न के ग्रास को आहुति समझकर डालें| आहुति यज्ञ-कुण्ड में नहीं पड़ी रहतीं, बल्कि सूक्ष्म होकर सारी सृष्टि में फैल जाती हैं| भोजन से पूर्व गीता में दिए निम्न मंत्र का मानसिक पाठ करें ...
"ब्रह्मार्पणं ब्रह्महविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्| ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना||४:२४||
अर्थात अर्पण करने का साधन श्रुवा ब्रह्म है और हवि शाकल्य अथवा हवन करने योग्य द्रव्य भी ब्रह्म है ब्रह्मरूप अग्नि में ब्रह्मरूप कर्ता के द्वारा जो हवन किया गया है वह भी ब्रह्म ही है| इस प्रकार ब्रह्मरूप कर्म में समाधिस्थ पुरुष का गन्तव्य भी ब्रह्म ही है||
यदि हो सके तो मानसिक रूप से शांति पाठ भी करें .....
"ॐ सहनाववतु | सह नौ भुनक्तु | सह वीर्यं करवावहै | तेजस्वि नावधीतमस्तु | मा विद्विषावहै || ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ||"
फिर भोजन-यज्ञ आरंभ करें| यदि संभव हो तो भोजन के प्रथम ग्रास के साथ ... "ॐ प्राणाय स्वाहा" मंत्र का मानसिक पाठ अवश्य करें| श्रद्धालु जन तो प्रथम पाँच ग्रासों के साथ क्रमशः निम्न मंत्रों का मानसिक पाठ करते हैं... ॐ प्राणाय स्वाहा, ॐ व्यानाय स्वाहा, ॐ अपानाय स्वाहा, ॐ समानाय स्वाहा, ॐ उदानाय स्वाहा ||
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जो अन्नपूर्णा के साधक हैं वे तो भोजन से पूर्व भगवती अन्नपूर्णा से मानसिक रूप से इस अन्नपूर्णा मंत्र के साथ भिक्षा मांग कर खाते हैं ...
"ॐ अन्नपूर्णे सदापूर्णे शंकर प्राण वल्लभे| ज्ञान वैराग्य सिध्यर्थं भिक्षां देहि च पार्वति||"
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भोजन से पूर्व इस मन्त्र से आचमन करें :-- "ॐ अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा" | भोजन के पश्चात् इस मन्त्र से आचमन करें :--
"ॐ अमृतापिधानमसि स्वाहा" |
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और भी थोड़ा बहुत परिवर्तन स्थान स्थान पर है, पर मूलभूत बात यही है कि जो भी हम खाते हैं वह हम नहीं खाते हैं, बल्कि साक्षात् परमात्मा को ही अर्पित करते हैं| उपरोक्त विधि एक यज्ञ है जिसके लिए परिश्रम तो करना ही पड़ता है|
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भगवान को जो प्रिय है वही खाना चाहिए| भगवान को क्या प्रिय हो सकता है? इसका निर्णय अपने विवेक से करें| भगवान तो पत्र, पुष्प और फल भी खा लेते हैं .....
"पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति| तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः||९:२६||
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आप सब महान आत्माओं को मेरा प्रणाम ! आप सब परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्तियाँ हैं| आप सब में मुझे परमात्मा के दर्शन होते हैं|
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ तत्सत ! ॐ ॐ ॐ !!
१९ सितंबर २०१९
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