आत्म-तत्व में स्थित रहना ही मेरी दृष्टि में वास्तविक साधना है .....
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ध्यान में चेतना के विस्तार की अनुभूतियाँ वास्तव में आत्म-तत्व की ही आरंभिक अनुभूतियाँ हैं| आत्मतत्व ही ब्रह्म-तत्व है| तब यह लगने लगता है कि हम यह देह नहीं, बल्कि परमात्मा की अनंतता हैं| उस अनंतता में स्थित रहना ही मेरी सीमित व अल्प समझ से वास्तविक साधना है| आत्म-तत्व को सदा अनुभूत करते रहें| इस से आगे की अनुभूतियाँ गुरुकृपा से सहस्त्रार में ब्रह्मरंध्र से भी परे यानि देह की चेतना से भी परे जाकर होती हैं| वे अनुभूतियाँ पारब्रह्म परमशिव परमात्मा की होती हैं| वे परमशिव ही भगवान वासुदेव हैं, जिनके बारे में गीता में कहा है....
"बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते| वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः||०७:१९||"
अर्थात बहुत जन्मों के अन्त में (किसी एक जन्म विशेष में) ज्ञान को प्राप्त होकर कि यह सब वासुदेव है ज्ञानी भक्त मुझे प्राप्त होता है ऐसा महात्मा अति दुर्लभ है||
आचार्य शंकर ने इस श्लोक की व्याख्या यों की है ....
"बहूनां जन्मनां ज्ञानार्थसंस्काराश्रयाणाम् अन्ते समाप्तौ ज्ञानवान् प्राप्तपरिपाकज्ञानः मां वासुदेवं प्रत्यगात्मानं प्रत्यक्षतः प्रपद्यते| कथम् वासुदेवः सर्वम् इति। यः एवं सर्वात्मानं मां नारायणं प्रतिपद्यते सः महात्मा न तत्समः अन्यः अस्ति अधिको वा| अतः सुदुर्लभः मनुष्याणां सहस्रेषु इति हि उक्तम् आत्मैव सर्वो वासुदेव इत्येवमप्रतिपत्तौ कारणमुच्यते||
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परमात्मा से एक क्षण के लिए भी पृथक होना महाकष्टमय मृत्यु है| वास्तविक महत्व इस बात का है कि हम क्या हैं| सच्चिदान्द परमात्मा सदैव हैं, परन्तु जीवभाव रूपी मायावी आवरण भी उसके साथ-साथ लिपटा है| उस मायावी आवरण के हटते ही सच्चिदानन्द परमात्मा भगवान परमशिव व्यक्त हो जाते हैं| सच्चिदानन्द से भिन्न जो कुछ भी है उसे दूर करना ही सच्चिदानंद की अभिव्यक्ति और वास्तविक उपासना है जिसमें सब साधनायें आ जाती हैं| अपने वास्तविक स्वरुप में स्थित होना ही साक्षात्कार है| उपासना और भक्ति (परम प्रेम) ही मार्ग हैं| जब परमात्मा के प्रति प्रेम हमारा स्वभाव हो जाए तब पता चलता है कि हम सही मार्ग पर हैं| परमात्मा के प्रति प्रेम यानि भक्ति ही हमारा वास्तविक स्वभाव है|
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कर्ता भाव को सदा के लिए समाप्त करना है| वास्तविक कर्ता तो परमात्मा ही हैं| कर्ताभाव सबसे बड़ी बाधा है| अतः सब कुछ यहाँ तक कि निज अस्तित्व भी परमात्मा को समर्पित हो| यह समर्पण ही साध्य है, यही साधना है और यही आत्म-तत्व में स्थिति है| इसके लिए वैराग्य और अभ्यास आवश्यक है| जो भी बाधा आती है उसे दूर करना है| अमानित्व, अदम्भित्व और परम प्रेम ये एक साधक के लक्षण हैं| हम जो कुछ भी है, जो भी अच्छाई हमारे में है, वह हमारी नहीं अपितु परमात्मा की ही महिमा है| आप सब महान आत्माओं को मेरा दंडवत प्रणाम !
ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२४ सितंबर २०१९
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ध्यान में चेतना के विस्तार की अनुभूतियाँ वास्तव में आत्म-तत्व की ही आरंभिक अनुभूतियाँ हैं| आत्मतत्व ही ब्रह्म-तत्व है| तब यह लगने लगता है कि हम यह देह नहीं, बल्कि परमात्मा की अनंतता हैं| उस अनंतता में स्थित रहना ही मेरी सीमित व अल्प समझ से वास्तविक साधना है| आत्म-तत्व को सदा अनुभूत करते रहें| इस से आगे की अनुभूतियाँ गुरुकृपा से सहस्त्रार में ब्रह्मरंध्र से भी परे यानि देह की चेतना से भी परे जाकर होती हैं| वे अनुभूतियाँ पारब्रह्म परमशिव परमात्मा की होती हैं| वे परमशिव ही भगवान वासुदेव हैं, जिनके बारे में गीता में कहा है....
"बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते| वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः||०७:१९||"
अर्थात बहुत जन्मों के अन्त में (किसी एक जन्म विशेष में) ज्ञान को प्राप्त होकर कि यह सब वासुदेव है ज्ञानी भक्त मुझे प्राप्त होता है ऐसा महात्मा अति दुर्लभ है||
आचार्य शंकर ने इस श्लोक की व्याख्या यों की है ....
"बहूनां जन्मनां ज्ञानार्थसंस्काराश्रयाणाम् अन्ते समाप्तौ ज्ञानवान् प्राप्तपरिपाकज्ञानः मां वासुदेवं प्रत्यगात्मानं प्रत्यक्षतः प्रपद्यते| कथम् वासुदेवः सर्वम् इति। यः एवं सर्वात्मानं मां नारायणं प्रतिपद्यते सः महात्मा न तत्समः अन्यः अस्ति अधिको वा| अतः सुदुर्लभः मनुष्याणां सहस्रेषु इति हि उक्तम् आत्मैव सर्वो वासुदेव इत्येवमप्रतिपत्तौ कारणमुच्यते||
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परमात्मा से एक क्षण के लिए भी पृथक होना महाकष्टमय मृत्यु है| वास्तविक महत्व इस बात का है कि हम क्या हैं| सच्चिदान्द परमात्मा सदैव हैं, परन्तु जीवभाव रूपी मायावी आवरण भी उसके साथ-साथ लिपटा है| उस मायावी आवरण के हटते ही सच्चिदानन्द परमात्मा भगवान परमशिव व्यक्त हो जाते हैं| सच्चिदानन्द से भिन्न जो कुछ भी है उसे दूर करना ही सच्चिदानंद की अभिव्यक्ति और वास्तविक उपासना है जिसमें सब साधनायें आ जाती हैं| अपने वास्तविक स्वरुप में स्थित होना ही साक्षात्कार है| उपासना और भक्ति (परम प्रेम) ही मार्ग हैं| जब परमात्मा के प्रति प्रेम हमारा स्वभाव हो जाए तब पता चलता है कि हम सही मार्ग पर हैं| परमात्मा के प्रति प्रेम यानि भक्ति ही हमारा वास्तविक स्वभाव है|
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कर्ता भाव को सदा के लिए समाप्त करना है| वास्तविक कर्ता तो परमात्मा ही हैं| कर्ताभाव सबसे बड़ी बाधा है| अतः सब कुछ यहाँ तक कि निज अस्तित्व भी परमात्मा को समर्पित हो| यह समर्पण ही साध्य है, यही साधना है और यही आत्म-तत्व में स्थिति है| इसके लिए वैराग्य और अभ्यास आवश्यक है| जो भी बाधा आती है उसे दूर करना है| अमानित्व, अदम्भित्व और परम प्रेम ये एक साधक के लक्षण हैं| हम जो कुछ भी है, जो भी अच्छाई हमारे में है, वह हमारी नहीं अपितु परमात्मा की ही महिमा है| आप सब महान आत्माओं को मेरा दंडवत प्रणाम !
ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२४ सितंबर २०१९
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