एक विचार ..... (समाज और राष्ट्र की अवधारणा)
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भारत में समाज और राष्ट्र की अवधारणा दुर्भाग्य से लगभग चौदह-पंद्रह सौ वर्षों पूर्व क्षीण हो गयी थी| वह एक घोर अज्ञान व अन्धकार का युग था इसीलिए हमें पिछले एक हज़ार वर्षों में पराजित और विदेशी लुटेरों का शिकार होना पडा| इसका दोष हम दूसरों पर नहीं डाल सकते| यदि पर्वत शिखर से बहता हुआ जल नीचे खड्डों में आता है तो खड्डे पहाड़ से क्या शिकायत कर सकते है? स्वयं की रक्षा के लिए खड्डे को ही शिखर बनना पडेगा| निर्बल को सब सताते हैं| संगठित और सशक्त राष्ट्र की ओर आँख उठाकर देखने का साहस किसी में नहीं होता|
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भारत में जब तक राष्ट और समाज हित की अवधारणा थी, तब तक किसी का साहस नहीं हुआ भारत की ओर आँख उठाकर देखने का| बिना किसी पूर्वाग्रह के यदि हम इतिहास का अध्ययन और विश्लेषण करें तो पायेंगे कि हमारी ही कमी थी जिसके कारण हम गुलाम हुए| वे कारण अब भी अस्तित्व में हैं पर कुछ कुछ चेतना अब धीरे धीरे समाज में आ रही है|
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आप चाहे कितनी भी सद्भावना सब के लिए रखो पर हिंसक और दुष्ट प्राणियों के साथ नही रह सकते| ऐसे ही हमारे सारे कार्य यदि राष्ट्रहित में हों तो हमें प्रगति के शिखर पर जाने से कोई नहीं रोक सकता| इस बिंदु पर सब को स्वयं मंथन करना पड़ेगा|
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अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में सब राष्ट्र अपना निज हित देखते हैं| कोई किसी का स्थायी शत्रु और मित्र नहीं होता| जो भावुकता में निर्णय लिए जाते हैं वे आत्म घातक होते हैं| वैसे ही यदि हम अपने लोभ लालच, जातिवाद और प्रांतवाद से ऊपर उठकर राष्ट्रहित में कार्य करें तो हमें विकसित होने से कोई नहीं रोक सकता|
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भारत का वेदान्त दर्शन समष्टि के हित की बात करता है| यदि पूरा विश्व ही समष्टि के हित की सोचे तो यह सृष्टि ही स्वर्ग बन जाएगी पर ऐसा नहीं हो सकता क्योंकि यह सृष्टि विपरीत गुणों से बनी है| सारा भौतिक जगत ही सकारात्मक और नकारात्मक ऊर्जा से निर्मित है| बुराई और भलाई दोनों ही विद्यमान रहेगी| हमें ही इस द्वंद्व से ऊपर उठना पडेगा|
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सभी निजात्मगण को नमन| सब का कल्याण हो|
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ॐ तत्सत ! ॐ नमः शिवाय ! ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
जुलाई ०८, २०१६
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भारत में समाज और राष्ट्र की अवधारणा दुर्भाग्य से लगभग चौदह-पंद्रह सौ वर्षों पूर्व क्षीण हो गयी थी| वह एक घोर अज्ञान व अन्धकार का युग था इसीलिए हमें पिछले एक हज़ार वर्षों में पराजित और विदेशी लुटेरों का शिकार होना पडा| इसका दोष हम दूसरों पर नहीं डाल सकते| यदि पर्वत शिखर से बहता हुआ जल नीचे खड्डों में आता है तो खड्डे पहाड़ से क्या शिकायत कर सकते है? स्वयं की रक्षा के लिए खड्डे को ही शिखर बनना पडेगा| निर्बल को सब सताते हैं| संगठित और सशक्त राष्ट्र की ओर आँख उठाकर देखने का साहस किसी में नहीं होता|
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भारत में जब तक राष्ट और समाज हित की अवधारणा थी, तब तक किसी का साहस नहीं हुआ भारत की ओर आँख उठाकर देखने का| बिना किसी पूर्वाग्रह के यदि हम इतिहास का अध्ययन और विश्लेषण करें तो पायेंगे कि हमारी ही कमी थी जिसके कारण हम गुलाम हुए| वे कारण अब भी अस्तित्व में हैं पर कुछ कुछ चेतना अब धीरे धीरे समाज में आ रही है|
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आप चाहे कितनी भी सद्भावना सब के लिए रखो पर हिंसक और दुष्ट प्राणियों के साथ नही रह सकते| ऐसे ही हमारे सारे कार्य यदि राष्ट्रहित में हों तो हमें प्रगति के शिखर पर जाने से कोई नहीं रोक सकता| इस बिंदु पर सब को स्वयं मंथन करना पड़ेगा|
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अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में सब राष्ट्र अपना निज हित देखते हैं| कोई किसी का स्थायी शत्रु और मित्र नहीं होता| जो भावुकता में निर्णय लिए जाते हैं वे आत्म घातक होते हैं| वैसे ही यदि हम अपने लोभ लालच, जातिवाद और प्रांतवाद से ऊपर उठकर राष्ट्रहित में कार्य करें तो हमें विकसित होने से कोई नहीं रोक सकता|
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भारत का वेदान्त दर्शन समष्टि के हित की बात करता है| यदि पूरा विश्व ही समष्टि के हित की सोचे तो यह सृष्टि ही स्वर्ग बन जाएगी पर ऐसा नहीं हो सकता क्योंकि यह सृष्टि विपरीत गुणों से बनी है| सारा भौतिक जगत ही सकारात्मक और नकारात्मक ऊर्जा से निर्मित है| बुराई और भलाई दोनों ही विद्यमान रहेगी| हमें ही इस द्वंद्व से ऊपर उठना पडेगा|
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सभी निजात्मगण को नमन| सब का कल्याण हो|
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ॐ तत्सत ! ॐ नमः शिवाय ! ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
जुलाई ०८, २०१६
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