ध्यान साधना में आत्म निरीक्षण .......
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साधना के हर क़दम पर साधक को पता होना चाहिए कि वह कितने पानी में है| स्वयं को धोखा नहीं देना चाहिए| ध्यान की हम कितनी गहराई में हैं, इसका निश्चित मापदंड है| उस मापदंड की कसौटी पर हम स्वयं को कस कर देख सकते हैं कि हम प्रगति कर रहे हैं या अवनति|
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ध्यान में ज्योति का दिखाई देना और नाद का सुनाई देना तो अति सामान्य बात है, कोई बड़ी प्रगति की निशानी नहीं| असली कसौटी है ..... "निरंतर अलौकिक आनंद और प्रफुल्लता की अनुभूति"| यदि जीवन में उदासी है, आनंद और प्रफुल्लता नहीं है, तो यह निश्चित है कि हम उन्नति नहीं कर रहे हैं, बल्कि हमारी अवनति ही हो रही है|
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कौन परमात्मा के आनंद में है और कौन नहीं इसका भी स्पष्ट लक्षण है इससे हम स्वयं को या किसी को भी जाँच सकते हैं| जो व्यक्ति जीवन में आनंदित और प्रसन्न है, उसके ये लक्षण हैं ....
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साधना के हर क़दम पर साधक को पता होना चाहिए कि वह कितने पानी में है| स्वयं को धोखा नहीं देना चाहिए| ध्यान की हम कितनी गहराई में हैं, इसका निश्चित मापदंड है| उस मापदंड की कसौटी पर हम स्वयं को कस कर देख सकते हैं कि हम प्रगति कर रहे हैं या अवनति|
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ध्यान में ज्योति का दिखाई देना और नाद का सुनाई देना तो अति सामान्य बात है, कोई बड़ी प्रगति की निशानी नहीं| असली कसौटी है ..... "निरंतर अलौकिक आनंद और प्रफुल्लता की अनुभूति"| यदि जीवन में उदासी है, आनंद और प्रफुल्लता नहीं है, तो यह निश्चित है कि हम उन्नति नहीं कर रहे हैं, बल्कि हमारी अवनति ही हो रही है|
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कौन परमात्मा के आनंद में है और कौन नहीं इसका भी स्पष्ट लक्षण है इससे हम स्वयं को या किसी को भी जाँच सकते हैं| जो व्यक्ति जीवन में आनंदित और प्रसन्न है, उसके ये लक्षण हैं ....
(१) उसके भोजन की मात्रा संयमित हो जाती है| थोड़े से अल्प सात्विक भोजन से
ही उसे तृप्ति हो जाती है| स्वाद में उसकी रूचि नहीं रहती| उसकी देह को
अधिक भोजन की आवश्यकता भी नहीं पड़ती| वह उतना ही खाता है जितना देश के
पालन-पोषण के लिए आवश्यक है, उससे अधिक नहीं|
(२) उसकी वाचालता लगभग समाप्त हो जाती है| वह फालतू बातचीत नहीं करता| गपशप में उसकी कोई रूचि नहीं रहती| परमात्मा की स्मृति उसे निरंतर बनी रहती है| फालतू की बातचीत से परमात्मा की स्मृति समाप्त हो जाती है|
(३) उसमें दूसरों के प्रति दुर्भावना और वैमनस्यता समाप्त हो जाता है| सभी के प्रति सद्भावना उसमें जागृत हो जाती है| उसकी सजगता, संवेदनशीलता और करुणा बढ़ जाती है| दूसरों को सुखी देखकर उसे प्रसन्नता होती है| दूसरों के दुःख से उसे पीड़ा होती है| उसे किसी से द्वेष नहीं होता|
(४) उसके श्वास-प्रश्वास की मात्रा कम हो जाती है और उसे विस्तार की अनुभूतियाँ होने लगती हैं| बार बार उसे यह लगता है कि वह यह शरीर नहीं है बल्कि समष्टि के साथ एक है|
(५) सगे-सम्बन्धियों, घर-परिवार, धन-संपत्ति और मान-बडाई में उसका मोह लगभग समाप्त होता है| मोह का समाप्त होना बहुत बड़ी उपलब्धि है|
(६) उसकी इच्छाएँ और कामनाएँ लगभग समाप्त हो जाती हैं| वह जीवन में सदा संतुष्ट रहता है| जीवन में संतोष धन का होना बहुत बड़ी उपलब्धि है| उसकी कोई पृथक इच्छा नहीं रहती, परमात्मा की इच्छा ही उसकी इच्छा हो जाती है| इससे उसके जीवन में कोई दुःख नहीं रहता, और वह सदा सुखी रहता है|
भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है .... "यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः| यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते||" इस विषय में किसी को कोई भी संदेह है तो उसे गीता के छठे अध्याय का अर्थ सहित पाठ और मनन करना चाहिए| भगवान श्रीकृष्ण ने इस विषय पर बहुत अधिक प्रकाश डाला है| भगवान् श्रीकृष्ण सभी गुरुओं के गुरु हैं| उनसे बड़ा कोई अन्य गुरु नहीं है| गीता के अध्ययन से सारे संदेह दूर हो जाते हैं|
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उपरोक्त आत्म-निरीक्षण से यानि उपरोक्त कसौटियों पर कसकर हम स्वयं में या किसी अन्य में भी जाँच सकते हैं कि कितनी आध्यात्मिक उन्नति हुई है|
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आप सब को सादर प्रणाम ! परमात्मा की आप सब साक्षात् साकार अभिव्यक्तियाँ हैं| आप सब मेरे भी प्राण हैं| आप सब की जय हो|
ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
१३ जुलाई २०१७
(२) उसकी वाचालता लगभग समाप्त हो जाती है| वह फालतू बातचीत नहीं करता| गपशप में उसकी कोई रूचि नहीं रहती| परमात्मा की स्मृति उसे निरंतर बनी रहती है| फालतू की बातचीत से परमात्मा की स्मृति समाप्त हो जाती है|
(३) उसमें दूसरों के प्रति दुर्भावना और वैमनस्यता समाप्त हो जाता है| सभी के प्रति सद्भावना उसमें जागृत हो जाती है| उसकी सजगता, संवेदनशीलता और करुणा बढ़ जाती है| दूसरों को सुखी देखकर उसे प्रसन्नता होती है| दूसरों के दुःख से उसे पीड़ा होती है| उसे किसी से द्वेष नहीं होता|
(४) उसके श्वास-प्रश्वास की मात्रा कम हो जाती है और उसे विस्तार की अनुभूतियाँ होने लगती हैं| बार बार उसे यह लगता है कि वह यह शरीर नहीं है बल्कि समष्टि के साथ एक है|
(५) सगे-सम्बन्धियों, घर-परिवार, धन-संपत्ति और मान-बडाई में उसका मोह लगभग समाप्त होता है| मोह का समाप्त होना बहुत बड़ी उपलब्धि है|
(६) उसकी इच्छाएँ और कामनाएँ लगभग समाप्त हो जाती हैं| वह जीवन में सदा संतुष्ट रहता है| जीवन में संतोष धन का होना बहुत बड़ी उपलब्धि है| उसकी कोई पृथक इच्छा नहीं रहती, परमात्मा की इच्छा ही उसकी इच्छा हो जाती है| इससे उसके जीवन में कोई दुःख नहीं रहता, और वह सदा सुखी रहता है|
भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है .... "यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः| यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते||" इस विषय में किसी को कोई भी संदेह है तो उसे गीता के छठे अध्याय का अर्थ सहित पाठ और मनन करना चाहिए| भगवान श्रीकृष्ण ने इस विषय पर बहुत अधिक प्रकाश डाला है| भगवान् श्रीकृष्ण सभी गुरुओं के गुरु हैं| उनसे बड़ा कोई अन्य गुरु नहीं है| गीता के अध्ययन से सारे संदेह दूर हो जाते हैं|
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उपरोक्त आत्म-निरीक्षण से यानि उपरोक्त कसौटियों पर कसकर हम स्वयं में या किसी अन्य में भी जाँच सकते हैं कि कितनी आध्यात्मिक उन्नति हुई है|
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आप सब को सादर प्रणाम ! परमात्मा की आप सब साक्षात् साकार अभिव्यक्तियाँ हैं| आप सब मेरे भी प्राण हैं| आप सब की जय हो|
ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
१३ जुलाई २०१७
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