उपदेश सार >>>>>
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ॐ ब्रह्मानन्दं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिं, द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्त्वमस्यादिलक्ष्यम् |
एकं नित्यं विमलमचलं सर्वधीसाक्षिभूतं | भावातीतं त्रिगुणरहितं सद्गुरुं तं नमामि ||"
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अब और कहने को कुछ भी नहीं बचा है| अब तक के सारे जन्म-जन्मांतरों से अर्जित इस हृदय का सारा भाव इस वेदमन्त्र में आ गया है .....
"हिरण्यगर्भ: समवर्तताग्रे भूतस्य जात: पतिरेक आसीत्।
स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम॥"
इस से परे अभी इस समय तो कुछ भी अन्य नहीं है| इस जन्म में भगवान ने इतनी बौद्धिक क्षमता नहीं दी है कि श्रुति भगवती को समझ सकूँ| पर गुरु महाराज ने करुणा कर के एक दूसरा मार्ग दिखा दिया है और मेरा लौकिक नाम भी वैसा ही रख दिया है .... "कृपा", जिसका अर्थ है ... करो और पाओ|
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बिना करे तो कुछ मिलेगा नहीं| ऐसा क्या करें जिस से इस जीवात्मा का कल्याण हो और यह परमशिव को उपलब्ध हो| गुरु महाराज ने मार्ग तो दिखा दिया, सारे संदेह दूर कर दिये, और परमशिव की अनुभूति भी करा दी| पर अब आगे का मार्ग तो स्वयं को ही पूरा करना है|
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कोई संदेह नहीं है| साकार रूप में भगवान वासुदेव मेरे चैतन्य में हैं, सामने ज्योतिर्मय रूप में भगवान परमशिव और गुरु महाराज स्वयं बिराजमान हैं| वे ही इसे पूरा भी कर देंगे| देने के लिए मेरे पास प्रेम के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है| सब कुछ तो उन्हीं का है| इस प्रेम पर भी उन्हीं का अधिकार है|
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उपदेश सार >>>>>
गुरु महाराज ने बताया है कि क्रियायोग का मार्ग ही मेरा मार्ग है| क्रिया ही वेद है, और उसका अभ्यास ही वेदपाठ है| क्रिया की परावस्था ही वेदान्त है|
गुरु महाराज ने बहुत कठोरता से आदेश दिया है .... परमप्रेममय होकर क्रिया और उस की परावस्था ..... इसके अतिरिक्त अन्य कुछ भी इधर-उधर नहीं देखना है| लक्ष्य सदा सामने रहे| लक्ष्य है .... 'परमशिव'| इस जन्म में ही सब कुछ उपलब्ध करना है|
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गुरु आज्ञा का पालन करेंगे| सब कुछ तो उन्होने स्पष्ट कर दिया, कोई भी संशय नहीं छोड़ा है|
"वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्कः प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च |
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते ||
नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व |
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः ||"
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कृपा शंकर
२४अप्रेल २०२०
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ॐ ब्रह्मानन्दं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिं, द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्त्वमस्यादिलक्ष्यम् |
एकं नित्यं विमलमचलं सर्वधीसाक्षिभूतं | भावातीतं त्रिगुणरहितं सद्गुरुं तं नमामि ||"
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अब और कहने को कुछ भी नहीं बचा है| अब तक के सारे जन्म-जन्मांतरों से अर्जित इस हृदय का सारा भाव इस वेदमन्त्र में आ गया है .....
"हिरण्यगर्भ: समवर्तताग्रे भूतस्य जात: पतिरेक आसीत्।
स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम॥"
इस से परे अभी इस समय तो कुछ भी अन्य नहीं है| इस जन्म में भगवान ने इतनी बौद्धिक क्षमता नहीं दी है कि श्रुति भगवती को समझ सकूँ| पर गुरु महाराज ने करुणा कर के एक दूसरा मार्ग दिखा दिया है और मेरा लौकिक नाम भी वैसा ही रख दिया है .... "कृपा", जिसका अर्थ है ... करो और पाओ|
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बिना करे तो कुछ मिलेगा नहीं| ऐसा क्या करें जिस से इस जीवात्मा का कल्याण हो और यह परमशिव को उपलब्ध हो| गुरु महाराज ने मार्ग तो दिखा दिया, सारे संदेह दूर कर दिये, और परमशिव की अनुभूति भी करा दी| पर अब आगे का मार्ग तो स्वयं को ही पूरा करना है|
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कोई संदेह नहीं है| साकार रूप में भगवान वासुदेव मेरे चैतन्य में हैं, सामने ज्योतिर्मय रूप में भगवान परमशिव और गुरु महाराज स्वयं बिराजमान हैं| वे ही इसे पूरा भी कर देंगे| देने के लिए मेरे पास प्रेम के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है| सब कुछ तो उन्हीं का है| इस प्रेम पर भी उन्हीं का अधिकार है|
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उपदेश सार >>>>>
गुरु महाराज ने बताया है कि क्रियायोग का मार्ग ही मेरा मार्ग है| क्रिया ही वेद है, और उसका अभ्यास ही वेदपाठ है| क्रिया की परावस्था ही वेदान्त है|
गुरु महाराज ने बहुत कठोरता से आदेश दिया है .... परमप्रेममय होकर क्रिया और उस की परावस्था ..... इसके अतिरिक्त अन्य कुछ भी इधर-उधर नहीं देखना है| लक्ष्य सदा सामने रहे| लक्ष्य है .... 'परमशिव'| इस जन्म में ही सब कुछ उपलब्ध करना है|
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गुरु आज्ञा का पालन करेंगे| सब कुछ तो उन्होने स्पष्ट कर दिया, कोई भी संशय नहीं छोड़ा है|
"वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्कः प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च |
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते ||
नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व |
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः ||"
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कृपा शंकर
२४अप्रेल २०२०
किसी भी शिवालय में शिव के वाहन नंदी का मुंह शिव की ओर होता है, वैसे ही हमारा भी दृष्टिपथ आत्म-तत्व की ओर होना चाहिए, क्योंकि हमारी यह देह आत्मा का वाहन है| आत्मा का निवास आज्ञाचक्र और सहस्त्रार के मध्य होता है, अतः हमारी चेतना का केंद्र वहीं होना चाहिए|
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परमात्मा एक प्रवाह है, उसे स्वयं के माध्यम से प्रवाहित होने दें, कोई अवरोध न खड़ा करें| एक दिन पता चलेगा कि वह प्रवाह तो हम स्वयं हैं| आध्यात्मिक यात्रा में कुछ पाने की कामना सबसे बड़ा भटकाव है| यहाँ कुछ नहीं मिलता, जो कुछ पास में है वह भी चला जाता है| फिर पता चलता है कि जो हम पाना चाहते थे वह तो हम स्वयं ही हैं|
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हम जो भी भोजन करते हैं वह हम स्वयं नहीं ग्रहण करते बल्कि अपनी देह में स्थित परमात्मा को अर्पित करते हैं, जिससे समस्त सृष्टि तृप्त होती है| भोजन इसी भाव से भोजन-मन्त्र बोलकर भगवान को अर्पित कर के करना चाहिए|
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ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर