कोई माने या न माने पर जीवन के अंतिम काल में सभी को यह मानना ही पड़ता है कि उन्हें अपने जीवन की युवावस्था में ही भगवान से जुड़ जाना चाहिए था व भगवत्-साक्षात्कार ही उन के जीवन का एकमात्र लक्ष्य और उद्देश्य होना चाहिए था।
संसार से राग-द्वेष और अहंकार ही सारी समस्याओं की जड़ होती है। जब तक यह बात समझ में आती है तब तक बहुत अधिक देरी हो जाती है। इसी उधेड़बुन में प्राण छुट जाते हैं। ॐ ॐ ॐ ॥
कृपा शंकर
१२ मई २०२५
भगवान एक रस हैं जिसे चखते रहो और आनंद लो. वे एक प्रवाह हैं जिन्हें स्वयं के माध्यम से निरंतर प्रवाहित होने दो. उनके सिवा कोई अन्य है ही नहीं. वे अनिर्वचनीय परमप्रेम हैं, जिनके प्रेम में स्वयं को विसर्जित कर दो.
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