Thursday, 29 July 2021

"अहं ब्रह्मास्मि" यानि मैं ब्रह्म हूँ यह कहना अहंकार नहीं है, अहंकार है स्वयं को यह देह, मन, और बुद्धि समझ लेना --

 "अहं ब्रह्मास्मि" यानि मैं ब्रह्म हूँ यह कहना अहंकार नहीं है, अहंकार है स्वयं को यह देह, मन, और बुद्धि समझ लेना ---

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अहंकार व ब्रह्मभाव में बहुत अंतर है। सांसारिक बुद्धि के तमोगुण प्रधान लोग, ब्रह्मभाव को अहंकार मानते हैं। ब्राह्मी चेतना से युक्त जब कोई योग साधक "शिवोSहम् शिवोSहम् अहम् ब्रह्मास्मि" कहता है तब यह उसकी अहंकार की यात्रा यानि कोई ego trip नहीं है| यह उसका वास्तविक अंतर्भाव है| आत्मा का धर्म है -- परमात्मा के प्रति अभीप्सा और परम प्रेम| यही हमारा सही धर्म है| और भी आगे बढ़ें तो परमात्मा की सर्वव्यापकता के साथ एक होकर हम कह सकते हैं -- "शिवोंहं शिवोहं अहं ब्रह्मास्मि|"
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शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धि आदि को निज स्वरुप समझना ही अहंकार है| वास्तव में 'अहं' केवल सर्वव्यापि आत्म-तत्व का नाम है जिसे हम नहीं समझते इसलिए अपने शरीर, मन और बुद्धि आदि को ही हम स्वयं मान लेते हैं| यही अहंकार है| हम परमात्मा के अंश हैं, परमात्मा के अमृतपुत्र हैं, और सच्चिदानंद के साथ एक हैं| यह होते हुए भी स्वयं को शरीर समझते हैं, यह अहंकार है|
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शरीर के धर्म हैं -- भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी आदि| प्राणों का धर्म है बल आदि| मन का धर्म है राग-द्वेष, मद यानि घमंड आदि| चित्त का धर्म है वासनाएँ आदि| इन सब को अपना समझना अहंकार है|
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आत्मा का धर्म है -- परमात्मा के प्रति अभीप्सा और परम प्रेम| यही हमारा सही धर्म है| और भी आगे बढ़ें तो परमात्मा की सर्वव्यापकता के साथ एक होकर हम कह सकते हैं -- "शिवोंहं शिवोहं अहं ब्रह्मास्मि|"
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यह अनुभूति का विषय है, बुद्धि का नहीं, अतः इस विषय पर और अधिक लिखने की आवश्यकता नहीं है| आप सब निजात्माओं में व्यक्त परमात्मा को मेरा नमन|
गुरु ॐ | ॐ नमो भगवते वासुदेवाय | अयमात्मा ब्रह्म |
चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् || ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
२३ जून २०२१

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